कुछ को तो विशेष रूप से सम्मानित भी किया है। वसुंधरा राजे के मुख्यमंत्रित्वकाल में भी जलमहल प्रकरण के जिम्मेदार अफसरों को तो कोर्ट के समन ही तामील नहीं कराए जा सके। उल्टे सरकार ने दंडित करने के बजाए उनको अहम पदों पर तैनात कर दिया। इतना ही नहीं तब तो सरकार भ्रष्ट अफसरों को बचाने के लिए काला कानून तक ले आई थी। जब कोर्ट्स के समन ही आरोपियों तक नहीं पहुंचते हों तब इनका अहंकार क्यों न चरम पर हो। आज भी ये सरकारों को अंग्रेजों की तर्ज पर ही चलाते हैं। भारतीय इनके लिए तो आज भी दोयम दर्जे के ही हैं। फिर उनके सेवक कैसे बन सकते हैं?
उत्तरदायित्व भी तय करें
वैसे तो विधायिका भी जनता की प्रतिनिधि संस्था है। राजस्व के आधार पर विकास करना इसका दायित्व है। किन्तु यहां भी मंत्रिमंडल तक में अपराधियों का बोलबाला रहने लगा है। पहली बार मुख्य न्यायाधीश जैसे संवैधानिक पद से यह तथ्य सार्वजनिक हुआ है। क्योंकि अब जनता को केवल न्यायपालिका पर ही भरोसा रह गया है।
व्यक्ति बड़ा या लोकतंत्र
एक और बात जो मुख्य न्यायाधीश ने कही वह विचारणीय है, गंभीर भी है। वह है कानूनों के निर्माण में गंभीर चिंतन का अभाव। कानून बनाने से पूर्व इनके प्रभावों का जितना आकलन होना चाहिए, नहीं होता। कानून संविधान की मंशा के अनुरूप तो होना ही चाहिए। कई बार नहीं होता। इसके कारण न्यायालयों में मुकदमों की बाढ़ आ जाती है। कानून के प्रभावों का हल भी कानून में निहित रहना चाहिए। ऐसा कम होता है।02:03 PM
पत्रिका इस विषय पर लगातार सरकार का ध्यान आकर्षित करती रही है। हमारा कार्य हर मुद्दे पर कोर्ट में जाना नहीं है। लेकिन यह सच है कि यदि सरकारें फैसलों को लागू करने में रुचि नहीं लेती तो क्या यह मान लेना चाहिए कि कहीं न कहीं उसका या उसके चहेतों का स्वार्थ बाधा बन रहा है। आगे जाकर यह सोच तो अमरबेल का कार्य करेगी। पेड़ को ही खा जाएगी। gulabkothari@epatrika.com