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नई दिल्ली

न्याय को नकारना

कानून बनाने से पूर्व इनके प्रभावों का जितना आकलन होना चाहिए, नहीं होता। कानून संविधान की मंशा के अनुरूप तो होना ही चाहिए। कई बार नहीं होता। इसके कारण न्यायालयों में मुकदमों की बाढ़ आ जाती है। कानून के प्रभावों का हल भी कानून में निहित रहना चाहिए। ऐसा कम होता है। व्यवस्था के मौजूदा हालात पर चोट करता ‘पत्रिका’ समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठरी का यह अग्रलेख –

नई दिल्लीJan 01, 2022 / 02:32 pm

Gulab Kothari

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gulab kothari articles deny justice

नई दिल्ली। न्याय की देवी आंखों पर पट्टी बांधकर रहती है। शायद इसीलिए कार्यपालिका और विधायिका भी न्यायालयों के फैसलों पर पट्टी बांधने लगी हैं। देश के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने लोकतंत्र के इन दोनों स्तंभों के न्यायिक फैसलों के प्रति अपमानजनक व्यवहार तथा बढ़ती नजरंदाजी पर खेद प्रकट किया है। सही अर्थों में न्यायपालिका और मीडिया दोनों की भूमिका संविधान के रक्षक के रूप में है। मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भी काफी कुछ हद तक पक्षपाती होने लगा है। न्यायपालिका पर भी परोक्ष दबाव तो बढऩे लगा है। किन्तु सबसे बड़ा अपमान तो फैसलों को लागू नहीं होने देना है। राजस्थान में दर्जनों फैसले धूल खा रहे हैं। जिन न्यायाधीशों ने फैसले दिए, उस दिशा में वे भी मौन हैं। किसी के सम्मान को कोई ठेस ही नहीं लगती। कार्यपालिका का भी उत्तरदायित्व है कि फैसलों को लागू कराने में न्यायपालिका का सहयोग करे। इसके बिना तो देश में कानून कभी लागू ही नहीं किए जा सकते।
पिछले दिनों ही, विजयवाड़ा में दिए गए वक्तव्य में न्यायाधीश रमना ने इसी परिस्थिति को भविष्य की सबसे बड़ी चुनौती बताया। न्यायपालिका अफसरों के सहयोग के बिना पंगु हो जाएगी। इसका कारण है कि विधायिका के पास सत्ता और धन का मद है तथा कार्यपालिका के पास भी इसका प्रभाव है। न्यायपालिका के पास दोनों ही नहीं है।
इतना ही नहीं, न्यायालयों में भर्ती, लोक अभियोजकों की नियुक्ति तथा न्यायपालिका का ढांचागत विकास भी इन्हीं दोनों स्तंभों के पास हैं। वहां भी यही स्थिति है। सामान्य कार्यों को करवाने के लिए भी आज कोर्ट को आदेश जारी करने पड़ते हैं। आज भी विभिन्न उच्च न्यायालयों में इसी कारण न्यायाधीशों की नियुक्तियां रुकी हुई हैं। राज्य सरकारें भी फैसले लागू करवाने में अधिक रुचि नहीं लेती। अफसरों को भी नाराज नहीं करना चाहती। भले ही रामगढ़ के साथ-साथ जयपुरवासियों के गले सूख जाएं। कोर्ट को फैसला देते समय ही इसे लागू करने की समय सीमा भी तय कर देनी चाहिए। यह भी एक रास्ता है। समय सीमा समाप्त होने पर यदि फैसला लागू नहीं होता, तो अधिकारियों को व्यक्तिश: जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए।
समस्या की जड़ अहंकार ही है। अहंकार का मूल शिक्षा प्रणाली है। जनता के सेवक खो गए। लक्ष्मी के दास हो गए। कार्यपालिका स्वयं नियमन करती है, पालना करवाती है तथा विधायिका की मित्र होती है। तब जनता का सम्मान करना उसकी अनिवार्यता नहीं रह जाती। नौकरी को किसी तरह का खतरा नहीं होता। राजस्थान में तो इसी सरकार ने राज्य के बड़े-बड़े अधिकारियों के विरुद्ध मुकदमे वापस लिए थे। खान महाघोटाले और एकल पट्टा प्रकरण में भ्रष्ट आचरण के आरोपी अधिकारियों को बचाने और उपकृत करने के उदाहरण हमारे सामने हैं।

कुछ को तो विशेष रूप से सम्मानित भी किया है। वसुंधरा राजे के मुख्यमंत्रित्वकाल में भी जलमहल प्रकरण के जिम्मेदार अफसरों को तो कोर्ट के समन ही तामील नहीं कराए जा सके। उल्टे सरकार ने दंडित करने के बजाए उनको अहम पदों पर तैनात कर दिया। इतना ही नहीं तब तो सरकार भ्रष्ट अफसरों को बचाने के लिए काला कानून तक ले आई थी। जब कोर्ट्स के समन ही आरोपियों तक नहीं पहुंचते हों तब इनका अहंकार क्यों न चरम पर हो। आज भी ये सरकारों को अंग्रेजों की तर्ज पर ही चलाते हैं। भारतीय इनके लिए तो आज भी दोयम दर्जे के ही हैं। फिर उनके सेवक कैसे बन सकते हैं?
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वैसे तो विधायिका भी जनता की प्रतिनिधि संस्था है। राजस्व के आधार पर विकास करना इसका दायित्व है। किन्तु यहां भी मंत्रिमंडल तक में अपराधियों का बोलबाला रहने लगा है। पहली बार मुख्य न्यायाधीश जैसे संवैधानिक पद से यह तथ्य सार्वजनिक हुआ है। क्योंकि अब जनता को केवल न्यायपालिका पर ही भरोसा रह गया है।
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एक और बात जो मुख्य न्यायाधीश ने कही वह विचारणीय है, गंभीर भी है। वह है कानूनों के निर्माण में गंभीर चिंतन का अभाव। कानून बनाने से पूर्व इनके प्रभावों का जितना आकलन होना चाहिए, नहीं होता। कानून संविधान की मंशा के अनुरूप तो होना ही चाहिए। कई बार नहीं होता। इसके कारण न्यायालयों में मुकदमों की बाढ़ आ जाती है। कानून के प्रभावों का हल भी कानून में निहित रहना चाहिए। ऐसा कम होता है।02:03 PM
पत्रिका इस विषय पर लगातार सरकार का ध्यान आकर्षित करती रही है। हमारा कार्य हर मुद्दे पर कोर्ट में जाना नहीं है। लेकिन यह सच है कि यदि सरकारें फैसलों को लागू करने में रुचि नहीं लेती तो क्या यह मान लेना चाहिए कि कहीं न कहीं उसका या उसके चहेतों का स्वार्थ बाधा बन रहा है। आगे जाकर यह सोच तो अमरबेल का कार्य करेगी। पेड़ को ही खा जाएगी।

gulabkothari@epatrika.com

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