scriptमरने से बचेंगे | Importance of millets in healthy body | Patrika News

मरने से बचेंगे

Published: Apr 06, 2021 07:36:16 am

Submitted by:

Gulab Kothari

आज अगर हम यह कहें कि हमको गेहूं नहीं खाना चाहिए। इसकी कई किस्में मधुमेह, अस्थमा और यहां तक कि कैंसर तक के बड़े कारण बन सकती हैं। चावल भी मरुप्रदेश में नहीं खाने चाहिए, तो क्या इन अधिकारियों की समझ, प्रतिक्रिया देने से पहले जरा भी सोचेगी?

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– गुलाब कोठारी

कृषि विभाग के कितने अधिकारी जानते हैं कि अन्न और शरीर दोनों की उत्पत्ति का कारण भूगोल-जलवायु ही है। आप मौसम के विपरीत खाना खाएं, बीमार पड़ जाएंगे। विपरीत मौसम वाले देश में रहने लग जाएं, तो धीरे-धीरे आपका शरीर कुछ रोग विशेष का घर बन जाएगा। इतना ही नहीं, प्रत्येक क्षेत्र की संस्कृति-परम्पराएं, खान-पान, देवी-देवता, लोक-संगीत आदि सभी कुछ तो क्षेत्रीय भूगोल पर ही आधारित रहते हैं। जब से हमने विदेशी गेहूं या बाहरी चावल नियमित खाना शुरू किया है, अन्न का प्राकृतिक सन्तुलन गड़बड़ा गया है। स्थानीय उपज पर भी मार पड़ी है। ऐसा इसलिए क्योंकि हमारे कृषि अधिकारी, विदेशी भूमि-अन्न-मौसम-व्यक्ति और विज्ञान के ही विशेषज्ञ हैं। उसी को विकास के नाम पर यहां के किसान पर थोप देते हैं। यहां की जानकारियां उनको अंग्रेजी भाषा में मिलती भी नहीं हैं। उस आयातित विज्ञान के नाम से ही किसान और कृषि को विकसित करने में लगे हुए हैं।
भारत विभिन्नताओं का देश केवल इसलिए है कि यहां भौगोलिक विभिन्नता अत्यधिक है। यूरोप के किसी देश में ऐसी विभिन्नता उपलब्ध नहीं है। तब वहां के वैज्ञानिक अन्वेषण हमारे किस काम आएंगे? अफसरों के लिए तो ये सब विकास के हथियार हैं। आज अगर हम यह कहें कि हमको गेहूं नहीं खाना चाहिए। इसकी कई किस्में मधुमेह, अस्थमा और यहां तक कि कैंसर तक के बड़े कारण बन सकती हैं। चावल भी मरुप्रदेश में नहीं खाने चाहिए, तो क्या इन अधिकारियों की समझ, प्रतिक्रिया देने से पहले जरा भी सोचेगी?
राजस्थान का भू-भाग तीन प्रकार की भूगोल और जलवायु में विभक्त है। तीन ही प्रकार का अन्न यहां की प्राकृतिक उपज रही है। सरकारें क्यों चाहती हैं कि पूरा प्रदेश इन स्थानीय पैदावारों को छोड़कर रासायनिक उर्वरक से पैदा गेहूं ही खाए और कैंसरग्रस्त हो जाए। जैसे पंजाब-हरियाणा के लोग हो रहे हैं। क्या यह सरकार चलाने की अनिवार्यता है?
पश्चिमी राजस्थान ‘बाजरा’ का क्षेत्र है। पूर्व में ‘ज्वार’ थी। उदयपुर मक्का का क्षेत्र है। शुरू में तो कोटा तक ज्वार का क्षेत्र था। नहरी सिंचाई ने कोटा को चावल और गेहूं से जोड़ दिया। श्रीगंगानगर गेहूं का सरताज बन गया। सरकारी अधिकारी हमेशा इस प्रयास में रहे कि पारम्परिक खेती सिमट जाए। जो बीज हजारों साल में विकृत नहीं हुआ, अधिकारियों ने इसे ‘उन्नत बीज’ के नाम से विकृत कर दिया। उनको और कुछ आता ही नहीं। जैसे-शिक्षा अधिकारी, व्यक्तित्व निर्माण को शिक्षा से बाहर रखते हैं।
मध्यप्रदेश में भी सरकारी रवैया इस तरह चला है कि खेती गेहूं की ओर झुकती जा रही है। गेहूं में पंजाब को पछाडऩे का लक्ष्य ही सरकार के लिए सर्वोपरि दिखता है। बाजरा, ज्वार और मक्का जैसे मोटे अनाज की फसलें लगातार सीमित हो रही हैं। जिन इलाकों में ये फसलें अब भी पैदा हो रही हैं, उनमें आदिवासी क्षेत्र ज्यादा हैं। कह सकते हैं कि मेहनतकश आदिवासियों ने गेहूं की तुलना में ज्यादा मेहनत की जरूरत वाली इन फसलों का अस्तित्व बनाए रखा है। शहडोल संभाग में बहुत ही चमत्कारिक पौष्टिक, शुगर फ्री और कई औषधीय गुणों से भरपूर स्वादिष्ट कोदो कुटकी को भी आदिवासी ही संजोए हुए हैं।
छत्तीसगढ़ के भू-भाग में बस्तर का पठार, सरगुजा का उत्तरी क्षेत्र और मैदानी क्षेत्र शामिल है। बस्तर का पठार परम्परागत रूप से कोटो व कुटकी का क्षेत्र है। मैदानी क्षेत्र में धान और मक्का थी। उत्तरी क्षेत्र में कुल्थी, रामतिल परम्परागत पैदावार है। नहरी सिंचाई ने मैदानी और पठार क्षेत्र को धान व गेहूं से जोड़ दिया। कवर्धा, राजनांदगांव जिलों में गन्ने का उत्पादन तेजी से बढ़ा है।
यहां धान और मक्का दो ही प्रकार का अन्न प्राकृतिक उपज रहा है। सरकार धीरे-धीरे धान का रकबा कम करने पर जोर दे रही है। वह चाहती है कि पूरा प्रदेश इन स्थानीय पैदावारों को छोड़कर खरीफ फसल की ओर आए। लेकिन किसान इसके लिए तैयार नहीं है। फिर सरकार ऐसा क्यों चाहती है?
क्या हमारे अधिकारी जानते हैं कि हम अन्न को ब्रह्म कहते हैं? ये वैसे भी ब्रेड-बटर खाने वाले दिमागी अंग्रेज हैं। अन्न के साथ जीवात्मा शरीर में जाता है। शुक्र का निर्माण करके नए शरीर की रचना का माध्यम बनता है। वर्षा से आने वाला जीव ही पृथ्वी पर भी उगता है, वही अन्न बनता है। उसी में पितरों के प्राण जुड़ते हैं। अज्ञान के कारण अन्न और अधिकारी, दोनों का ही जीवन व्यर्थ हो जाता है। किसी के काम नहीं आ सकते।
अब संयुक्त राष्ट्र साधारण सभा ने भारत तथा अन्य 70 सहयोगी देशों की पहल पर सन् 2023 को ‘मोटे अनाज का वर्ष’ (Year of the Millets) घोषित कर दिया है। सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया कि ये अनाज अत्याधिक पौष्टिक तथा विपरीत मौसमी परिस्थितियों में टिक सकता है। लोक भाषा में इनको ‘मोटा अनाज’ कहते हैं। मुख्य रूप से मक्का-बाजरा-ज्वार-जौ-रागी-चीणा-कांगणी जैसे अनाज आते हैं। विश्वभर में इनको हरित क्रान्ति की मार सहनी पड़ी।
सरकारी वरदहस्त भी गेहूं और चावल पर अटक गया। राशन में भी सरकार इन दो को ही बांटने लग गई। घर की उपज तो पराई हो गई। सरकारें किसानों की हितैषी बन गईं। घर के किसानों को मारकर नहरों के किनारे गेहूं-चावल के कृषक बसा दिए। वर्तमान किसान आन्दोलन का आधार किसान नहीं, गेहूं और चावल हैं। सरकार ने मोटे अनाज को सोच-समझकर बिस्तर पकड़ा दिए। किसान और सरकार दोनों की दिशा विपरीत हैं। संयुक्त राष्ट्र के इस निर्णय से अब इन मोटे अनाजों के दिन सुधरेंगे, लोगों के स्वास्थ्य में भी, विशेषकर अविकसित और विकासशील देशों में, अप्रत्याशित सुधार होने की संभावना हैं। बच्चों के स्वास्थ्य में प्राकृतिक तत्त्वों की पूर्ति होने लगेगी, जो गेहूं और चावल से नहीं होती। पांच वर्ष से छोटी उम्र के लगभग आधे बच्चे अल्प पोषण से मर जाते हैं। इसका निराकरण भी मोटा अनाज में ही पाया गया। सरकारी अधिकारी विदेशी चिन्तन को ही वैज्ञानिक मानते हैं। देशी की वैज्ञानिकता जानते ही नहीं। कितने प्रकार का मोटा अनाज लुप्त हो चुका, विश्व मानचित्र से। जबकि मोटा अनाज पाचक होता है-रक्त-शर्करा, हृदय रोग, कैंसर जैसे रोगों की रोधक क्षमता रखता है। कीटनाशक और रासायनिक खाद ने गेहूं के साथ-साथ कई अनाज-फल-सब्जियों को कैंसरकारक सिद्ध कर दिया। संयुक्त राष्ट्र का यह निर्णय निश्चित तौर पर पारम्परिक कृषकों एवं कृषि जिन्सों को नया जीवन देगा। लोगों में रोग निवारण का मार्ग प्रशस्त करेगा।
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