scriptलोकपाल पर लुका-छिपी | Lokpal was not to be created so as not to be made | Patrika News
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लोकपाल पर लुका-छिपी

राजनीतिक दलों को अच्छा लगने वाला भी नहीं है, पर कड़वा सच यही है कि उनमें इच्छाशक्ति नहीं है। मंशा है, लेकिन वह भी दिखावटी-सी लगती है।

Mar 13, 2019 / 02:12 pm

dilip chaturvedi

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लोकपाल! लोकपाल!! लोकपाल!!! यह शब्द सुनते-सुनते देश की जनता के कान पक गए। जब पहली बार1969 में लोकसभा ने लोकपाल कानून पास किया तो देश की आबादी 55 करोड़ थी, आज 2019 में वह 135 करोड़ हो गई। इस बीच 50 वर्षों में लोकसभा ने कम से कम 9 मर्तबा लोकपाल कानून पास किया और हर बार वह राज्यसभा में जाकर अटक गया। छह साल पहले, पहली बार उसे राज्यसभा की भी मंजूरी मिल गई। और तो और राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद 16 जनवरी को उसका नोटिफिकेशन भी निकल गया। पर नतीजा? वही ढाक के तीन पात। लोकपाल नहीं बनाया जाना था सो नहीं बनाया गया। यहां तक कि लोकपाल की नियुक्ति, जल्द से जल्द करने का मामला उच्चतम न्यायालय तक पहुंच गया। वहां भी पूरे पांच वर्ष हो गए। 5 मार्च 2014 को एक स्वैच्छिक संगठन ‘कॉमनकॉज’ ने लोकपाल की जल्द नियुक्ति को लेकर याचिका लगाई, जिस पर आज तक सुनवाई जारी है। इस दौरान स्वयं उच्चतम न्यायालय में मामले की सुनवाई चलते-चलते आधा दर्जन प्रधान न्यायाधीश सेवानिवृत्त हो गए, पर न केन्द्र सरकार ने लोकपाल की नियुक्ति की और न ही शीर्ष अदालत यह करवा पाई। हां, इस दौरान उसने केन्द्र सरकार को डांटा-फटकारा खूब। कई बार तो तारीख भी दे दी कि अमुक तारीख तक नियुक्ति हो जानी चाहिए, पर सरकार ने उन फटकारों को भी घोल पीया।

ऐसा भी नहीं है कि केन्द्र सरकार या वहां सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी लोकपाल की नियुक्ति नहीं करना चाहती। अन्ना हजारे के लोकपाल आंदोलन में तो भाजपा ने जोर-शोर से भाग लिया था। चौतरफा दबाव में तब कांग्रेस को लोकपाल कानून बनाना पड़ा। बड़ा सवाल यही है कि फिर दिक्कत क्या है? लोकपाल की नियुक्ति क्यों नहीं हो पा रही? जवाब बहुत आसान नहीं है।

राजनीतिक दलों को अच्छा लगने वाला भी नहीं है, पर कड़वा सच यही है कि उनमें इच्छाशक्ति नहीं है। मंशा है, लेकिन वह भी दिखावटी-सी लगती है। देश की जनता के सामने बार-बार बोलते रहो द्ग हम भ्रष्टाचार मिटाना चाहते हैं, उसके लिए एक मजबूत लोकपाल बनाना चाहते हैं, लोकपाल ही नहीं, राज्यों में तो लोकायुक्त भी बनाना चाहते हैं द्ग लेकिन करो कुछ मत। करते तो पिछले ५० सालों में कांग्रेस से लेकर भाजपा और तीसरी ताकत के तमाम प्रमुख दल और उनके नेता केन्द्र की सरकारों में रह लिए, क्या लोकपाल नहीं बन जाता! ज्यादातर राज्यों में लोकायुक्त बने तो सही, पर दंतविहीन। हां, मजबूत लोकपाल और लोकायुक्त की लड़ाई लडऩे वाले, अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी सरीखे कई नेता बड़े-बड़े पदों पर जरूर बैठ गए। और तो और अन्ना आंदोलन के दौरान बड़े जोर-शोर से लोकपाल का गाना गाने वाले बड़े-बड़े मीडिया घराने और टीवी चैनल भी इस पर मौन साध गए। जनता तो जनता है। वह तो तब जागती है, जब चुनाव आते हैं, नहीं तो वोट डालकर पांच साल के लिए सो जाती है। निगाहें अब उच्चतम न्यायालय पर हैं। हाल ही उसने सरकार को दस दिन का समय दिया है, यह बताने के लिए कि चयन समिति की बैठक कब होगी? उम्मीद की जानी चाहिए कि न्यायालय छोटे-छोटे कारणों की आड़ में पांच साल निकाल देने वाली सरकार को अब और वक्त नहीं देगा। हो सकता है, आचार संहिता के चलते नियुक्ति तो चुनाव बाद नई सरकार करे, पर जो बाधाएं हैं वे दूर हो जाएं। आशंका है कहीं यह भरोसा भी टूट न जाए।

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