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शरीर ही ब्रह्माण्ड : अबला ही बलवान है

Published: Jun 19, 2021 07:16:09 am

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Gulab Kothari

बल की परिभाषा है संकोच तथा निर्बल की परिभाषा है विकास। एक स्थान पर न टिकना ही विकास है, यही निर्बलता है। एक स्थान पर प्रतिष्ठित रहना ही संकोच है, साक्षात् बल की प्रतिष्ठा है।

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– गुलाब कोठारी

सूर्य अग्निमय और चन्द्रमा सोममय है। इनका प्रवर्ग्य (बचा हुआ भाग) ही ऋताग्नि तथा ऋतसोम है। इन्हीं के योग से ऋतुएं उत्पन्न होती हैं। वृषा (पुरुष) सृष्टि में सम्वत्सर यज्ञ का अग्नि तत्त्व प्रधान रहता है तथा योषा (स्त्री) सृष्टि में सोम तत्त्व प्रधान रहता है। पुरुष सृष्टि वृषा है, स्त्री सृष्टि योषा है। इनका अन्न-अन्नाद की तरह भोक्ता-भोग्य सम्बन्ध तो है, किन्तु पशुवत् नहीं। मित्रवत है।
अग्नि बलवान है, किन्तु यह बलवत्ता सोम पर निर्भर है। हृदय भाव से बल का विकास होता है। हृदय केन्द्र में स्थित सत्य है तथा इस सत्य से निकलने वाली रश्मियां ही बल है। अर्थात एक ही सत्य की सत्य और बल दो अवस्थाएं हैं। आधार सत्य रहता है, प्रयोग बल का ही होता है। यह बल ही बहिर्जगत् की ओर विकसित होता है। ‘बलं सत्यादोजीय:।’ ‘बल बाव विज्ञानाद् भूय:।’
अग्नि बलवान है। पुरुष में सत्य अग्नि तत्त्व की प्रधानता है। अग्नि (वैश्वानर) ही पुरुष है। सोम को निर्बल कहा है। सोम ऋत तत्त्व है, हृदय शून्य है। अत: इसमें विकास रूप बल नहीं है। इसी ऋतसोम की प्रधानता से स्त्री ‘अबला’ है।
पुरुष प्रतिष्ठा है, स्त्री उसी का आश्रय लेकर प्रतिष्ठित है। पुरुष आलम्बन एवं स्त्री आलम्बिता। अग्नि युक्त पुरुष आगे चलने वाला, सोमरूप स्त्री उसका अनुगमन करने वाली है। अबला कही जाने वाली यह स्त्री उपासना के योग्य है। मनु भी कहते हैं जहां नारियों की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं- यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता। इसके अबलापन का क्या कारण है। वस्तुत: जिस सोम को ‘अबल’ कह रहे हैं वह अन्त: बलघन ही है। अग्नि तो वास्तव में निर्बल ही है। आन्तरिक बल ही वास्तविक बल है। यह सौम्या स्त्री का रूप है। अग्नि बल तो तत्त्वत: निर्बल ही है। हम स्त्री को ही मानो पुरुष कह रहे हैं।
बल की परिभाषा है संकोच तथा निर्बल की परिभाषा है विकास। एक स्थान पर न टिकना ही विकास है, यही निर्बलता है। एक स्थान पर प्रतिष्ठित रहना ही संकोच है, साक्षात् बल की प्रतिष्ठा है। संकुचित-दृढ़ शरीर, संयत वाणी, कसे हुए वस्त्र (योद्धा रूप) आदि बलवान के लक्षण कहे गए हैं। अग्नि विकास धर्मा है, सोम संकोच धर्मा है। यानी कि अग्नि निर्बल, सोम बलवान है। तब स्त्री भला ‘अबला’ क्यों?
प्राण सत् है। प्राण में चूंकि अन्य प्राण नहीं रहता है, अत: असत् है। प्राणवान् को ही सत् कहते हैं। सोम स्वयं बल रूप है, अत: बलवान् कैसे हो सकता है? बल को धारण करने वाला बलवान होता है-स्वयं बल नहीं। अत: सोम ‘अबल’ हुआ। इस बल के कारण ही अग्नि स्वयं को विकास धर्मा कहकर बलवान बना है। जब तक अग्नि को सोम उपलब्ध है, तब तक वह स्व-स्वरूप में अग्नि है। सोम के समाप्त होते ही अग्नि रौद्र रूप लेता हुआ नष्ट हो जाता है अर्थात् शुद्ध सोम में परिणत हो जाता है-‘अग्नेराप:।’ शिव रूप छोड़कर शव हो जाता है। सोम बनने पर निर्बल सोम बलघन हो जाता है। किसी अन्य अग्नि का बल बन जाता है। निष्कर्ष यह निकला कि अग्नि की बलवत्ता सोम पर ही निर्भर है। अग्नि की प्रधानता से पुरुष शिव है। स्त्री, सोमघन-शक्तिघन प्रधान है-शक्ति है।।
सोम ही पुरुष की प्रतिष्ठा है। अग्नि अन्न का भोक्ता है। अन्न से ही शुक्र की अवस्था बनती है। सौम्य शुक्र ही पुरुष का अन्तरात्मा है। शुक्र रक्षा ही पुरुष की स्थिति का कारण है। इसी से पुरुष बलवान रहता है। भीतर शुक्र की सौम्यता है। शरीर-आग्नेय-भीतर निर्बल। शुक्र स्वयं निर्बल है-मन का निर्माता भी है। अत: मन भी निर्बल होता है। पुरुष को संकल्पवान होने के लिए उपासना की आवश्यकता पड़ती है।
दो पुरुष वार्तालाप करते हैं, तो भीतर दोनों ही निर्बल हैं। अत: कुछ विशेष घटित नहीं होता। किन्तु जब सौम्यात्मा पुरुष आग्नेयी स्त्री के सम्मुख होता है, तब कन्नी काटनी पड़ जाती है। स्त्री बाहर सौम्या है, उसे सौम्य मन से सम्बन्ध बनाना पड़े तो कुछ न कुछ घटना ही है।
पुरुष शरीर आग्नेय है, प्रतिष्ठा शुक्र सोम है। पुरुष की प्रतिष्ठा स्त्री है। पुरुष स्वयं भीतर स्त्री है। स्त्री स्वयं भीतर पुरुष है। ‘स्त्रिय: सतीस्तां उ मे पुंस आहु:।’ (ऋ. १.१६४.१५)। फिर भी पुरुष के आग्नेय शरीर की प्रतिष्ठा जल है। जल से ही पृथ्वी का निर्माण होता है। शरीर पिण्ड में प्राण और भूत दो विभाग हैं। दृश्य शरीर भूत है, अदृश्य भाग प्राण है। यही भूत प्रतिष्ठा है। यही सोम तत्त्व है। इस सोम तत्त्व (आप्य प्राण) के निकलते ही शरीर नष्ट हो जाता है। इसी प्राण को ब्रह्मणस्पति-अभ्व: कहते हैं। मिथ्या आचरण से इसी आप्य प्राण पर आघात होता है। वही व्यक्ति की पतन दशा है।
शरीर की तरह ही सौम्य-शुक्र के भी दो विभाग होते हैं-भूत (द्रव्य) तथा प्राण भाग। प्राण भाग आग्नेय रूप प्रतिष्ठा है। यह भी सिद्धान्त ही है। बाह्य-भीतरी भाग विपरीत लक्षणा होते हैं। शरीर का निर्माण औषधि रूप अन्न से होता है। औषधियां सौम्य हैं। इनके गर्भ में अग्नि रहती है। अत: इनकी सन्तान (शुक्र) भी ऐसा ही है। बाहर सौम्य, भीतर अग्नि। इसी शुक्र स्थित आग्नेय प्राण को ‘वृषा’ कहा जाता है। यही वृषा-शुक्र वर्षण से प्रजोत्पत्ति में समर्थ होता है। शुक्र प्रजोत्पत्ति का कारण नहीं बनता, वृषा ही कारण है। इसी आग्नेय वृषा के सम्बन्ध से पुरुष ‘पुरुष’ है। पुरुष में शरीर और शुक्र दो भाग हुए। प्रत्येक के आग्नेय-सोम दो-दो विभाग हुए। आग्नेय-सौम्य-सौम्य-आग्नेय। बाहर दोनों अग्नि, भीतर दोनों सोम। अग्नि तत्त्व की प्रधानता ही पुरुष की प्रधानता सिद्ध करती है। इस अग्नि को बनाए रखना ही स्त्री के महत्व को रेखांकित करता है। चन्द्रमा भले ही निर्बल कहा जा सकता है, किन्तु सूर्य की तथा पृथ्वी की अग्नि के स्वरूप को स्थिर रखता हैं- अपने सोम की आहुति से।
यहां यह स्पष्ट रहना चाहिए कि ‘वृषा’ शब्द शुक्र द्रव्य पर लागू नहीं होता। शुक्राणु का शुक्र ही वृषा है। शुक्राणु का शरीर आग्नेय, शुक्र सौम्य होता है। स्त्री शरीर में रज सुप्त रहता है। जैसे काष्ठ में अग्नि। काष्ठ के अनेक उपयोग हैं। कहीं भी अग्नि की आवश्यकता नहीं है। लकड़ी के मकान में यदि भीतर अग्नि प्रज्ज्वलित हो जाए तो? इसी प्रकार लकड़ी के मकान में यदि आग लग जाए तो भीतर की अग्नि सहभागी हो जाएगी। जहां अग्नि में यज्ञीय सोम आहूत करना हो, वही अरणी मन्थन करके अग्नि प्रज्ज्वलित की जाती है। इसी प्रकार के मन्थन से रक्त में रज का आविर्भाव किया जाता है। तब शुक्र की आहुति होती है।
जीवन का एक स्वरूप अद्र्धनारीश्वर है। पुरुष भीतर सोम, स्त्री भीतर अग्नि है। यह उसके दृढ़ निश्चयात्मक स्वरूप का द्योतक है। यही शक्ति स्वरूप है। दाम्पत्य भाव में दाम्पत्य रति के माध्यम से पुरुष का पूर्ण रूपान्तरण पत्नी कर देती है। वानप्रस्थ के शुरुआती काल में पुरुष का आग्नेय भाव शिथिल होने लगता है। स्त्री का वर्चस्व बढ़ता जाता है। पुरुष का यह सौम्य भाव ही उसे भक्ति-उपासना मार्ग से जोड़ता है। इस स्थान पर पहुंचकर शक्ति का निर्माण पूरा हो जाता है। यही उसका पौरुष भाव है। यही ऋग्वेद के मंत्र का अर्थ भी है-

”अग्निर्जागार-तमु सामानि यन्ति।
अग्निर्जागर-तमयं सोम आह-
तवाहमस्मि सख्ये न्योका:।।”

पौरुष भाव अग्नि प्रधान है। पौरुष के जाग्रत होते ही सोम आकर्षित होता है। मित्र बनकर, गौण रूप में रहना चाहता है। वही अग्नि के स्वरूप का संरक्षक बनता है।
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