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जीवाश्म ईंधन पर कम निर्भरता की ओर कदम

– पेट्रोल और डीजल… मांग, आपूर्ति और मूल्य निर्धारण की दिशा में सुधार के कई उपाय किए मौजूदा सरकार ने

नई दिल्लीMar 03, 2021 / 10:40 am

विकास गुप्ता

वरुण गांधी

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वरुण गांधी

केंद्र, राज्य और स्थानीय स्तर पर सरकारी मदद ने भारत में ई-रिक्शा (हर महीने करीब 11,000 बेचे गए) अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया है। अक्टूबर 2018 की एक रिपोर्ट बताती है कि चीन में 2011 से लेकर उस समय तक बेचे गए इलेक्ट्रिक फोर-व्हीलर वाहनों से अधिक ई-रिक्शा भारत में हो गए हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में बीते एक साल में तेल की कीमतें दोगुनी (ब्रेंट क्रूड ऑयल इंडेक्स के अनुसार मार्च 2020 में 30 डॉलर प्रति बैरल के मुकाबले फरवरी 2021 में तकरीबन 64 डॉलर प्रति बैरल) हो गई हैं। यह महंगाई स्पष्ट रूप से मांग-आपूर्ति के बुनियादी सिद्धांत पर आधारित है, लेकिन तीखी प्रतिक्रिया की बजाय इसके असल कारणों को समझने की कोशिश का हमेशा अभाव दिखता है। कीमत में बढ़ोतरी का सबसे पहला कारण कच्चे तेल की मांग में बढ़ोतरी है। कोविड-19 लॉकडाउन के बाद अर्थव्यवस्थाएं खुलीं तो कच्चे तेल की वैश्विक मांग भी बढ़ी। दूसरी तरफ ओपेक देशों ने 2020 की शुरुआत में 97 लाख बैरल प्रतिदिन की कटौती की थी। चूंकि वे कीमतें नीचे नहीं आने देना चाहते थे इसलिए उत्पादन बढ़ाने को तैयार नहीं थे। तब से सिर्फ 25 लाख बैरल प्रतिदिन की ही बढ़ोतरी हो सकी है। पिछली सरकारों के दौर में देश को कीमतों में ऐसे उतार-चढ़ाव का सामना करने के लिए ठीक से तैयार नहीं किया गया। ऐसी उदासीनता ने मध्य-पूर्व पर निर्भरता को बढ़ाया (भारत के तेल आयात का 83 प्रतिशत भाग मध्य-पूर्व से आता है)।

मौजूदा सरकार ने मांग, आपूर्ति और मूल्य निर्धारण की दिशा में सुधार के कई उपाय किए हैं, जिनका मकसद कीमत में उतार-चढ़ाव से आमजन को बचाते हुए आयात पर निर्भरता कम करना और घरेलू तेल व गैस उत्पादन को बढ़ावा देना है। आपूर्ति पक्ष यानी खासतौर से घरेलू तेल और गैस उत्पादन का क्षेत्र देखें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक में नए हाइड्रोकार्बन एक्सप्लोरेशन लाइसेंसिंग कार्यक्रम (एचईएलपी) को मंजूरी दिए जाने के बाद भारत में बिना इस्तेमाल किए पड़ी सेडिमेंटरी बेसिन के खनन में बड़ी कामयाबी मिली। इसके तहत भविष्य में मुख्य रूप से संभावित ऑपरेटर द्वारा पेश खनन कार्यक्रम के आधार पर कैटेगरी दो व तीन बेसिन का आवंटन होना है। इस बीच, एक बड़ा बदलाव अधिकतम उत्पादन के साथ अधिकतम राजस्व हासिल करने का आया है, जिसमें सरकारी तेल कंपनियों के 66 मौजूदा फील्ड निजी कंपनियों को ऑफर किए जा रहे हैं, जबकि कुछ सार्वजनिक क्षेत्र के लिए रखे जा रहे हैं। सोच में यह बदलाव पिछले कुछ वर्षों की नीलामियों में भी दिखा है (उदाहरण के लिए ओपन एकरिज लाइसेंसिंग नीति, डिस्कवर्ड स्मॉल फील्ड्स राउंड्स…)। उन क्षेत्रों में, जो आमतौर पर पूरी तरह इस्तेमाल किए जा चुके हैं, वहां वित्तीय प्रोत्साहन के माध्यम से उन्नत तेल खनन तकनीक के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया गया है। हाइड्रोकार्बन निदेशालय के तहत अनुमोदन प्रक्रिया काफी आसान हो गई है। इसका असर बीते कुछ वर्षों में ड्रिल किए गए तेल और गैस कुओं की संख्या में दिखता है – 2010 में करीब 14,000 से बढ़कर ये 2017 में करीब 18,811 हो गए हैं। साथ ही, सरकार ने मध्य-पूर्व से तेल खरीद में विविधता लाने की कोशिश की और अमरीका, वेनेजुएला व अफ्रीका से ज्यादा खरीदारी की गई।

इसके अलावा भारत पेट्रोल में ज्यादा बायो-फ्यूल या जैव ईंधन का इस्तेमाल कर रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार 2019 में एथनॉल की औसत ब्लेंडिंग दर करीब 5.8त्न थी। राष्ट्रीय बायो-फ्यूल नीति (2018) लागू होने के साथ 2030 तक यह दर करीब 20त्न करने का लक्ष्य रखा गया है। आयात के नजरिये से इसके नतीजों पर गौर करें – तेल मार्केटिंग कंपनियां घरेलू बाजारों से निकट भविष्य में सालाना एक लाख करोड़ रुपए का बायो-फ्यूल खरीदेंगी। यह कृषि अर्थशास्त्र के लिए गेम-चेंजर होगा। आसान शब्दों में कहें तो देश में ज्यादा एथनॉल उत्पादन का मतलब है गन्ना किसानों के लिए ज्यादा आमदनी और कम आयात। इसके साथ ही, भारत के बिजली उत्पादन में गैस के इस्तेमाल को कम करने पर भी जोर दिया जा रहा है। हमारी बिजली उत्पादन क्षमता में अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी 2014 से सालाना करीब 17.5त्न की दर से बढ़ी है।

पेट्रोल और डीजल की नियंत्रण मुक्त कीमत का मतलब है कि सरकार केरोसीन और एलपीजी पर ज्यादा खर्च (वित्त वर्ष 2010-11 में 19,484 करोड़ रुपए की तुलना में वित्त वर्ष 2020-21 में 35,758 करोड़ रुपए) कर सकती है। इसके चलते पिछले वर्ष सरकार के लिए करीब 8 करोड़ गरीब परिवारों को रसोई गैस सब्सिडी (3 मुफ्त गैस सिलेंडर) देना मुमकिन हुआ। इसके अलावा मांग पक्ष पर सरकार की नीतिगत पहल ने प्रदूषण-मुक्त ईंधन और बेहतर प्रौद्योगिकी अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया है। केंद्र, राज्य और स्थानीय स्तर पर सरकारी सहायता ने भारत में इलेक्ट्रिक रिक्शा (हर महीने करीब 11,000 बेचे गए) को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया है। अक्टूबर 2018 की एक रिपोर्ट बताती है कि चीन में 2011 से लेकर उस समय तक बेचे गए इलेक्ट्रिक फोर-व्हीलर वाहनों से अधिक ई-रिक्शा भारत में हो गए हैं। फास्टर

एडॉप्शन एंड मैन्युफैक्चरिंग ऑफ हाइब्रिड एंड इलेक्ट्रिक व्हीकल्स स्कीम (एफएएमई, 2015) ने इलेक्ट्रिक दोपहिया वाहन तेजी से बाजार में लाने और अपनाने को बढ़ावा दिया है। इसके अलावा, बीएस-6 के तहत सख्त उत्सर्जन मानदंडों को अपनाने से इलेक्ट्रिक वाहनों और पारंपरिक इंजन वाले वाहनों के ईंधन के बीच मूल्य के अंतर को पाटने में मदद मिली। भारत की आर्थिक मजबूती सुनिश्चित करने के लिए हमें फॉसिल फ्यूल पर अपनी निर्भरता कम करने की जरूरत है, जिसमें निजी कार वाली आर्थिक प्रणाली पर पुनर्विचार करने और बायो-फ्यूल के साथ-साथ सार्वजनिक परिवहन की तरफ बढऩे पर जोर देना होगा।
(लेखक सांसद और भाजपा नेता हैं)

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