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1987 में मजदूर के हक में आया था फैसला
रतलाम के सांवलिया रुंडी गांव में रहने वाले आदिवासी दुधा भामर से साल 1960 में एक रतलाम के एक व्यक्ति ने 16 बीघा जमीन की रजिस्ट्री करा ली थी। इसके कुछ दिनों बाद दुधा भामर की मौत हो गई। दुधा भामर के चार बेटे हैं जिनमें से थावरा भामरा को अब जाकर अपनी जमीन का वापिस मालिकाना हक मिल पाया है। संघर्ष की इस लड़ाई को लड़ते लड़ते थावरा भामर के दो भाइयों की भी मौत हो चुकी है। थावरा भामर की भी उम्र करीब 70 साल हो चुकी है वो बीते 50 साल से अपने परिवार के साथ कच्चे मकान में रहकर मजदूरी करते थे और परिवार का पालन पोषण करते थे। थावरा भामर ने बताया कि वो बीते कई सालों से अपनी जमीन को वापस दिलाने की मांग करते हुए अधिकारियों के चक्कर काट रहे थे। कई बार न उम्मीदी हाथ लगी लेकिन हिम्मत नहीं हारी और 1987 में एक एसडीएम साहब ने मामले को लेकर उनकी मदद की थी जिसके बाद न्यायालय ने भी उनके पक्ष में फैसला सुनाया था।
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कलेक्टर ने दिया था 10 दिनों का आश्वासन
कोर्ट की तरफ से 1987 में थावरा भामर के पक्ष में फैसला आया था लेकिन इसके बाद भी दशकों तक उन्हें जमीन का मालिकाना हक नहीं मिला। फैसले को लेकर कभी आगे की शासकीय प्रक्रिया नहीं की गई और आदिवासी थावरा भामर के नाम की ज़मीन को राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज नहीं किया गया। लगातार कमिश्नर और राजस्व विभाग में पीड़ित थावरा भामर चक्कर लगाता रहा लेकिन फिर भी उसे उसकी जमीन का मालिकाना हक नहीं मिला। बीते दिनों वो रतलाम कलेक्टर कुमार पुरुषोत्तम के पास फरियाद लेकर पहुंचा था तब कलेक्टर कुमार पुरषोत्तम ने सभी कागजात और कोर्ट के फैसले के दस्तावेज देखे और मजदूर थावरा भामरा को 10 दिनों में जमीन का मालिकाना हक दिलाने का आश्वासन दिया था। तब मजदूर को कलेक्टर का आश्वासन भी उन्हीं आश्वासनों की तरह लगा था जैसे कि वो सालों से सुनता आ रहा था लेकिन कलेक्टर कुमार पुरषोत्तम ने सात दिनों के अंदर ही मजदूर को उसकी 16 बीघा जमीन का मालिकाना हक और कब्जा वापस दिला दिया है जिससे अब ये मजदूर करोड़ों रुपए की जमीन का मालिक बन गया है। बताया जा रहा है कि मजदूर की 16 बीघा जमीन की कीमत करीब 7 करोड़ रुपए है।
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