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धर्म

हम अयोध्या की प्रतिष्ठा धूमिल नहीं होने देंगी

– सिया ने कहा, “समय किसे कब कहां खड़ा करेगा यह हमें नहीं पता उर्मिला, पर यह तय रहे कि हम जहां भी होंगे परिवार के साथ होंगे।
– कुछ भी हो जाय हम कुल को एकत्र रखेंगे। हम कुछ टूटने नहीं देंगे। यही हमारा धर्म है…

Nov 11, 2022 / 12:05 pm

दीपेश तिवारी

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अयोध्या स्वर्ग की भांति सज गयी थी। वहां का तृण तृण राममय था। राम (shri ram) को राजा बनते देखने की लालसा हर व्यक्ति में थी। हर व्यक्ति रामराज्य को जी लेना चाहता था। महिलाएं रोज आंगन के साथ साथ समूचे द्वार को गोरब-मिट्टी से लीप कर पवित्र कर देतीं। पुरुष-स्त्री दिन भर सजे संवरे रहते। संध्या होते ही हर घर की चौखट, तुलसीचौरा, द्वार पर दीपकों की लड़ियां जगमगा जातीं।
अंतःपुर में भी आनन्द पसरा हुआ था। तीनों माताएं अपने प्रिय राम को अयोध्यानरेश के रूप में देखने के लिए व्याकुल थीं। उनकी हर वार्ता राज्याभिषेक से शुरू होती और वहीं पर समाप्त होती थी। जनक पुत्रियों के मध्य भी सदैव इसी आयोजन के संबंध में चर्चा हुआ करती थी। भरत और शत्रुघ्न तो भरत के ननिहाल गए थे, पर लक्ष्मण सदैव उत्साहित रहते थे। वे कभी पत्नी के साथ अपनी खुशियां बांटते तो कभी भाभियों सीता (Sita) या माण्डवी को दरबार की खबरें बता रहे होते थे। पूरे राजमहल में बस दो लोग थे जो अब भी अतिउत्साह से इतर सामान्य भाव के साथ रह रहे थे। वे थे सिया (Sita) और राम (shri ram)! वे बातें सुनते और मुस्कुरा उठते।

और फिर एक दिन! संध्या के समय वाटिका में बैठी सीता (Sita) और उर्मिला के पास माण्डवी दौड़ी हुई आईं। उनकी आंखों में जल और चेहरे पर चिन्ता झलक रही थी। स्वर कांप रहा था, पग लड़खड़ा रहे थे। रोती माण्डवी ने कहा, “अनर्थ होने वाला है दाय! अयोध्या का नाश होने वाला है।”

सिया (Sita) उठीं और माण्डवी को गले लगा लिया। उनकी पीठ थपथपाते हुए बोलीं- समय के हर निर्णय का कोई न कोई अर्थ अवश्य होता है माण्डवी, कुछ भी अनर्थ नहीं होता। क्या हुआ बहन? इतनी भयभीत क्यों हो?”
“उस बूढ़ी दासी ने सब नाश कर दिया। उसने माता को भड़काया और माता भइया को वनवास भेजने के लिए कोप भवन में चली गईं। वे मेरे आर्य को अयोध्यानरेश बनाना चाहते हैं।” माण्डवी का स्वर टूट रहा था।
सिया चुप रहीं। कुछ न कहा, बस माण्डवी की पीठ थपथपाती रहीं। माण्डवी ने ही फिर कहा, “माता अन्याय कर रही हैं। मैं आर्य को जानती हूं, उन्हें राज्य का लोभ नहीं। राज्य भइया का है, और उनके स्थान पर राजा बनने का घिनौना विचार आर्य के मन को छू भी नहीं पाएगा। माता को कोई रोके दाय, अन्यथा सबकुछ तहस नहस हो जाएगा।”

उर्मिला आश्चर्य में डूबी खड़ी हो गयी थीं। सिया (Sita) ने दोनों को अपनी भुजाओं में भर लिया और कहा, “हम इस कुल की सबसे छोटी सदस्य हैं माण्डवी। हम पिताश्री और माताओं के निर्णय में हस्तक्षेप नहीं कर सकते। पर स्मरण रहे, कुछ भी हो जाय हम कुल को एकत्र रखेंगे। हम कुछ टूटने नहीं देंगे। यही हमारा धर्म है…”
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सिया उर्मिला की ओर घूमीं और कहा, “तुम सुन रही हो न उर्मिला? कुछ भी हो जाय, यह परिवार नहीं बिखरना चाहिए। राजनीति की कालकोठरी में हो रही संबंधों की परीक्षा में चारों भाई कितने सफल होते हैं यह वे ही जानें, पर आंगन की परीक्षा में हम चारों को सफल होना ही होगा। घर स्त्रियों का होता है, और वे ठान लें तो उन्हें ईश्वर भी नहीं तोड़ सकता।”
“हम चार कब थीं दाय! हम एक ही हैं। हम तीनों कभी आपकी इच्छा के विरुद्ध नहीं होंगी।” उर्मिला समझ नहीं पा रही थीं कि क्या कहें। सिया (Sita) ने कहा, “समय किसे कब कहां खड़ा करेगा यह हमें नहीं पता उर्मिला, पर यह तय रहे कि हम जहां भी होंगे परिवार के साथ होंगे। घर के पुरुष अगर टूट भी गए तो स्त्रियां उन्हें दुबारा बांध सकती है, पर स्त्रियां टूट जाएं तो पुरुष घर को कभी बांध नहीं पाते। हमें घर को टूटने नहीं देना है।”

“क्या होने वाला है दाय? मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा है।” उर्मिला की घबराहट कम नहीं हो रही थी। “क्या होगा, यह हमारे हिस्से का प्रश्न नहीं है उर्मिला! हमें बस यह प्रण लेना होगा कि कुछ भी हो जाय, महाराज जनक की बेटियां सब संभाल लेंगी। हम अयोध्या की प्रतिष्ठा धूमिल नहीं होने देंगी।” तीनों ने एक दूसरे को मजबूती से पकड़ लिया था। यह जनकपुर का संस्कार था।
क्रमशः

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