और फिर एक दिन! संध्या के समय वाटिका में बैठी सीता (Sita) और उर्मिला के पास माण्डवी दौड़ी हुई आईं। उनकी आंखों में जल और चेहरे पर चिन्ता झलक रही थी। स्वर कांप रहा था, पग लड़खड़ा रहे थे। रोती माण्डवी ने कहा, “अनर्थ होने वाला है दाय! अयोध्या का नाश होने वाला है।”
सिया (Sita) उठीं और माण्डवी को गले लगा लिया। उनकी पीठ थपथपाते हुए बोलीं- समय के हर निर्णय का कोई न कोई अर्थ अवश्य होता है माण्डवी, कुछ भी अनर्थ नहीं होता। क्या हुआ बहन? इतनी भयभीत क्यों हो?”
“उस बूढ़ी दासी ने सब नाश कर दिया। उसने माता को भड़काया और माता भइया को वनवास भेजने के लिए कोप भवन में चली गईं। वे मेरे आर्य को अयोध्यानरेश बनाना चाहते हैं।” माण्डवी का स्वर टूट रहा था।
सिया चुप रहीं। कुछ न कहा, बस माण्डवी की पीठ थपथपाती रहीं। माण्डवी ने ही फिर कहा, “माता अन्याय कर रही हैं। मैं आर्य को जानती हूं, उन्हें राज्य का लोभ नहीं। राज्य भइया का है, और उनके स्थान पर राजा बनने का घिनौना विचार आर्य के मन को छू भी नहीं पाएगा। माता को कोई रोके दाय, अन्यथा सबकुछ तहस नहस हो जाएगा।”
सिया उर्मिला की ओर घूमीं और कहा, “तुम सुन रही हो न उर्मिला? कुछ भी हो जाय, यह परिवार नहीं बिखरना चाहिए। राजनीति की कालकोठरी में हो रही संबंधों की परीक्षा में चारों भाई कितने सफल होते हैं यह वे ही जानें, पर आंगन की परीक्षा में हम चारों को सफल होना ही होगा। घर स्त्रियों का होता है, और वे ठान लें तो उन्हें ईश्वर भी नहीं तोड़ सकता।”
“क्या होने वाला है दाय? मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा है।” उर्मिला की घबराहट कम नहीं हो रही थी। “क्या होगा, यह हमारे हिस्से का प्रश्न नहीं है उर्मिला! हमें बस यह प्रण लेना होगा कि कुछ भी हो जाय, महाराज जनक की बेटियां सब संभाल लेंगी। हम अयोध्या की प्रतिष्ठा धूमिल नहीं होने देंगी।” तीनों ने एक दूसरे को मजबूती से पकड़ लिया था। यह जनकपुर का संस्कार था।