काबुल के व्यापारियों से खरीदा था शहनाज
रीवा रियासत के महाराजा व्यंकट रमण सिंह को घुड़सवारी का शौक था और उनके अस्तबल में तरह-तरह के घोड़े रहते थे। उनके सबसे पसंदीदा घोड़ा शहनाज था जिसकी खूबियां उसे खास बनाती हैं। 1905 में काबुल के सौदागर रीवा आए थे जिन्होंने तत्कालीन महाराजा व्यंकटरमण सिंह को घुड़सवारी के लिए वह घोड़ा दिया था। यह घोड़ा महाराजा को इतना पसंद आया कि उन्होंने उसे खरीद लिया। उसकी खूबियों की वजह से धीरे-धीरे वह महाराजा का पसंदीदा घोड़ा बन गया। महाराजा उसे हमेशा अपने साथ रखते थे। उसे युद्ध कौशल का प्रशिक्षण भी दिया गया था। वह मुंह में दो धारी तलवार फंसाकर दुश्मनों का पेट फाड़ देता था। शहनाज की फुर्ती का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह उफान मारती नदियों को आसानी से पार कर जाता था। वह भोजन में बादाम व पिस्ता खाता था। इतिहासकार उसकी तुलना महाराणा प्रताप के चेतक घोड़े से करते थे जो किसी भी दृष्टि से चेतक से कम नहीं था।
महाराजा की मौत के बाद छोड़ दिया था खाना-पीना
शहनाज घोड़े का महाराजा व्यंकट रमण सिंह से भी काफी लगाव था। वह उनको बहुत चाहता था। साल 1918 में महाराजा व्यंकट रमण सिंह के निधन का उसको गहरा सदमा लगा था। एक सप्ताह तक उसने अन्नजल ग्रहण नहीं किया था। शहनाज की मनोदशा को महाराजा के पुत्र महाराजा गुलाब सिंह ने समझा और उसे महाराजा की तरह दुलार दिया जिसके बाद उसने भोजन करना शुरू किया था। बाद में 1934 में शहनाज की मृत्यु हो गई थी।
लंदन से मंगवाई गई प्रतिमा
शहनाज घोड़े की मृत्यु 1934 में हुई थी। इतने साल तक रीवा रियासत के महाराजा की सेवा करने के बाद जब शहनाज की मृत्यु हुई तो उसको गार्ड ऑफ ऑनर देकर विदाई दी गई थी। उसकी समाधि एसएएफ ग्राऊंड में बनवाई गई थी जो आज भी मौजूद है। समाधि में उसके जन्म और मृत्यु की तारीख भी लिखी हुई है। इनता ही नहीं शहर के स्टेच्यू चौराहा में शहनाज घोड़े की प्रतिमा स्थापित है। इसमें महाराजा व्यंकट रमण सिंह सवार हैं। यह प्रतिमा शहनाज की मृत्यु के बाद स्थापित की गई थी जिसे लंदन से मंगवाया गया था। इस चौराहे का नाम घोड़ा चौराहा रखा गया था। यह प्रतिमा आज भी शहनाज की याद को जिंदा रखे हुए है। यह बहुत ही कम लोग जानते होंगे कि स्टेच्यू चौराहे में स्थित प्रतिमा शहनाज घोड़े की है।