एक समय था जब गर्र्मी के दिनों में राह चलते लोगों को शीतल पेयजल उपलब्ध कराने के लिये दानदाताओं, सेठ साहूकारों के द्वारा सार्वजनिक स्तर पर प्याऊ की व्यवस्थाएं की जातीं थीं। धनाढ्य लोगों के द्वारा राहों में कुंए भी खुदवाए जाते थे।
आज प्रौढ़ हो रही पीढ़ी के जेहन में वे यादें ताजा होंगी, जिसमें यात्रा के समय सुराही या छागल ले जाने का चलन था। कमोबेश हर यात्री बस या ट्रक में छागल लटकी दिख जाती थी। बस स्टैण्ड अथवा रेलवे स्टेशन के आसपास समितियों के द्वारा यात्रियों को नि:शुल्क ठण्डा पानी पिलाया जाता था। समय बदलता गया और सार्वजनिक प्याऊ इतिहास की वस्तुओं में शामिल होने के कगार पर पहुंच गर्ई है। बोतल बंद पानी का चलन आरंभ होने से सुराही और छागल का अस्तित्व भी समाप्ति के कगार पर है। आज की युवा पीढ़ी को सुराही के बारे में तो शायद पता हो पर छागल के बारे में वे शायद ही जानते हों। आज बाजार में भी छागल कहीं बिकती नहीं दिखती। दुकानों अथवा कार्यालयों में भी लोगों के द्वारा बोतल बंद या कंटेनर्स में पानी बुलाया जाता है। शुद्ध आरओ (रिवर्स ऑस्मोसिस) पानी के नाम पर बिना फिल्टर किए पानी का चलन चल पड़ा है। सिवनी में आरओ पानी जगह-जगह बिक रहा है। खाद्य एवं औषधि प्रशासन अथवा नगर पालिका के द्वारा कभी इस बात की तस्दीक करने की जरूरत नहीं समझी गई कि जो पानी बाजार में बिक रहा है वह वाकई आरओ तकनीक के द्वारा शोधित है अथवा नहीं।