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सीकर

गेस्ट राइटर: दान की तिल भर शुरुआत दुनिया बदल सकती है

मकर संक्रांति विशेष…

सीकरJan 15, 2024 / 01:00 pm

Ajay

दानवीरों का अनुकरण करने और देने की आदत को जीवन में उतारने का तिल भर प्रयास करने का दिन

दानवीरों का अनुकरण करने और देने की आदत को जीवन में उतारने का तिल भर प्रयास करने का दिन

जितेन्द्र शर्मा, उप प्राचार्य

सकरात (मकर संक्रांति) दानवीरों का अनुकरण करने और देने की आदत को जीवन में उतारने का तिल भर प्रयास करने का दिन है। तिल से छोटा भला क्या हो सकता है। देना आसान नहीं। अबोध बालक भी अपने हाथ आई चीज आसानी से नहीं छोड़ता। देना आदत बन जाए तो यह दुनिया की तस्वीर बदल सकता है। हमारी संस्कृति में मुनि दधीचि, राजा कर्ण, सम्राट हर्षवर्द्धन, भामाशाह, अब्दुल रहीम खानखाना जैसे सिर्फ दानवीर नहीं थे, इन्होंने अपरिग्रह की सीमा ही लांघ ली थी। संक्रांति मुख्यत: महिलाओं के दान के संकल्प का त्योहार है। इस दिन वे अपने बूते की चीजें आस-पड़ोस की महिलाओं को देती हैं। साथ ही दूसरी महिलाओं से ऐसी ही वस्तुएं स्वीकार भी करती हैं। लेन-देन की मुस्कान उनके चेहरे पर दिन भर देखी जा सकती है। सम्राट हर्षवर्धन प्रयाग के कुंभ में अपने कपड़े तक दूसरों को दान कर देते। लेने वाले के चेहरे पर आई तिल भर मुस्कान को अपनी स्मृति में लेकर जाते। अर्थात लेन-देन एकतरफा नहीं होता। त्योहार सामाजिक आदर्श के क्रियात्मक रूप होते हैं। जीवन भर अपनी बेटी-बहिन को देने वाले पिता या भाई को इस दिन कमाऊ बन चुके दोहित्र या भांजे आकर कपड़े पहनाते हैं। यह रस्म सावर्जनिक कुएं पर होती है। जलस्रोत को गंगा के समान पवित्र मानने की भावना के कारण यह परम्परा बनी होगी। इसीलिए कुओं पर साफ-सफाई रहती थी। कुएं नहीं रहे तो पहनाने- ओढ़ाने का काम हैंडपंप पर होने लगा। हैंडपंप भी नाकारा होकर लुप्त हो रहे हैं। पानी के स्रोत ही नहीं रहेंगें तो परम्परा के स्रोत भी सूख जाएंगें, यह एक चेतावनी है। कार्ल मार्क्स ने विश्व के श्रमिकों के लिए साप्ताहिक अवकाश का उपहार दिलवाया। भारत में उससे पहले भी श्रमिक अवकाश करते आए थे। अमावस्या या प्रमुख त्योहारों को ‘अत्ता’ रखा जाता था। ‘अत्ता’ का मतलब कामगारों की स्वैच्छिक और सामूहिक छुट्टी। संक्रांति को भी अत्ता रखा जाता। इसी कारण दिन बिताने के लिए कहीं कांच की गोली से खेलने और कहीं कपड़े की गेंद बनाकर दड़ी खेलना प्रचलन में आया। कहीं पतंगबाजी इस दिन की पहचान बन गई। समाज को व्यक्ति का देय लौटाने की प्रवृत्ति जिस देश में जितनी अधिक होगी, संसाधनों का टोटा उतना ही कम होगा। शिक्षा या चिकित्सा के क्षेत्र में संसाधन जुटाने में अनेक सक्षम लोगों ने अहम भूमिका अदा की। इनमें शेखावाटी के दानवीरों का नाम प्रमुखता से आता है। दानदाताओं के आगे आने से ही सरकार इनका संचालन कर पाई। बाद में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप ने दान की बजाय भागीदारी पर जोर देना शुरु कर दिया। दान की आवश्यकता के अनुसार क्षेत्र बदल रहे हैं। जैसे, रक्तदान, अंगदान, देहदान। रक्तदान के प्रति जागरूकता तो आई है लेकिन अंगदान की स्थिति अच्छी नहीं है। प्रति दस लाख पर यह दर 1 से भी कम है। जबकि एक व्यक्ति के मरणोपरांत अंगदान से आठ लोगों को नया जीवन मिलता है। पांच लाख लोग समय पर अंग प्रत्यारोपण के अभाव में दम तोड देते हैं। देने की शुरुआत जरूरी है। तिल भर हुई शुरुआत भी आदत बन जाए तो पहाड़ खड़ा कर सकती है और दुनिया की तस्वीर बदल सकती है।

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