वीरवाड़ा के प्यारेलाल बताते हैं कि कमाने की उम्र में बेटा इन्द्र पत्थर घड़ाई का काम करने लगा। कुछ दिनों बाद जब उसे सांस लेने में कठिनाई हुई तो जांच कराई। सिलिकोसिस बीमारी निकली। यहां-वहां उपचार कराया पर कोई फर्क नहीं पड़ा और अन्तत: तीस की उम्र में ही भगवान को प्यारा हो गया। वे बताते हैं अब परिवार में कोई कमाने वाला भी नहीं है। श्रम विभाग से भी कोई सहायता नहीं मिली है।
सिलिकोसिस की बीमारी से मानाराम ने दो जवान बेटों को खो दिया। जैसा कि मानाराम बताते हैं कि उसके बेटे मगनाल (28) और भंवरलाल (25) पत्थर घड़ाई का कार्य करते थे। लेकिन बीमारी ने एक के बाद दोनों बेटों को छिन लिया। वे बताते हैं कि मैं ऐसा अभागा पिता हूं कि मुझे अपने दोनों बेटों को कंधा देना पड़ा।
वीरवाड़ा के लसाराम की कहानी भी कारुणिक है। इनकी आंखों से टपक रहे आंसू ही उनके जेहन के दर्द को बयां कर रहे थे। जैसा कि वे बताते हैं कि एक के बाद एक सिलिकोसिस की बीमारी से दो बेटों की मौत हो गई। हर्षन और चम्पालाल दोनों पत्थर घड़ाई का कार्यकरते थे। पहले हर्षद की मौत हुई और अब 22 फरवरी को चम्पालाल का भी दम टूट गया।
चिकित्सक बताते हैं कि सिलिकोसिस नामक बीमारी लाइलाज है। जानकार लोग इसे एड्स से भी खतरनाक बताते हैं। पत्थर घड़ाईके कार्य से जुड़े मजदूरों को यह बीमारी अधिकतर होती है। कारण कि घड़ाई के दौरान उडऩे वाले पत्थर के सूक्ष्म कण सांस के जरिए शरीर में जाते हैं। धीरे-धीरे यह फैफड़ों में एकत्र हो जाते हैं। इससे मजदूर को टीबी के साथ-साथ सिलिकोसिस बीमारी हो जाती है। इससे सांस लेने में कठिनाई होती है। घबराहट होने लग जाती है। खांसी बढऩे और सांस लेने में दिक्कत होने से मरीज के फैफड़े जवाब दे जाते हैं। मरीज पैदल तक नहीं चल सकता और बिस्तर में पड़े-पड़े ही दम तोड़ देता है।
मनोहरङ्क्षसह कोटड़ा, श्रम निरीक्षक, सिरोही