अच्छी और बुरी प्रौद्योगिकी हमेशा बहस का विषय रहा है। हैरित मानते हैं, सोशल मीडिया खुद अस्तित्ववादी खतरा नहीं है, बल्कि यह वह तरीका है, जो मानवता को खतरे के करीब ले जाता है। फिल्म में सोशल मीडिया के कई शिल्पियों के विचारों का उल्लेख है। जैसे फेसबुक के पूर्व निदेशक टिम केंडल, लाइक बटन का आविष्कार करने वाले जस्टिन रोजेंस्टीन और यूट्यूब पर ‘रिकमंडेड वीडियो’ की संरचना तैयार करने वाले गुइलमी चेस्लॉट आदि। आज ये सभी अपने इन कामों को सही नहीं ठहराते।
टेक एक्सपर्ट कहते हैं कि हम अपना ज्यादातर समय सोशल मीडिया पर इसलिए बिताते हैं, क्योंकि हमारे पास विकल्प नहीं है? टेक कंपनियां अपने सम्मोहन में फंसाए रखने और हमारे हर मूवमेंट पर नजर बनाए रखने की प्रणाली विकसित करने पर बेशुमार धन खर्च कर रही हैं और मोटी कमाई कर रही हैं। हम उनके लिए उपभोक्ता न रहकर ‘उत्पाद’ बन गए हैं। जुकरबर्ग और सुसान वॉजिकी अरबपति बन गए और हमने परिवार, रिश्ते, ज्ञान, समय, खुशी सब छोडकऱ खुद को आभासी दुनिया के हवाले कर दिया। हम इस भयानक साजिश के मोहरे हैं। हम उसी सांचे में ढल गए, जैसा कंपनियां चाहती हैं।
वृत्तचित्र में ओर्लोव्स्की ने नाटक के जरिए प्रौद्योगिकी और पारिवारिक मूल्यों के बीच संघर्ष को रेखांकित किया है। आज परिवार के सदस्यों को खाने की टेबल पर एक-दूसरे की तरफ देखने तक की फुरसत नहीं। किशोर बेटी सोशल मीडिया पर व्यस्त है और बेटा तेज आवाज में वीडियो देखता है। यानी संस्कार छूट रहे हैं। फोन ने परिवार और दोस्तों के साथ बातचीत के तरीकों को बदल दिया है। ऐसा नहीं है कि इस बदलाव की जानकारी टेक दिग्गजों को नहीं है। फेसबुक सीईओ मार्क जुकरबर्ग मान चुके हैं कि सोशल मीडिया पर अभिभावक और कानूनविदों की निगरानी जरूरी है।