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CORONA FREE SUMATRA: सुमात्रा के आदिवासी इसलिए नहीं लेते कोरोना का नाम

-आदिवासियों में सेल्फ आइसोलेशन की परंपरा सदियों पुरानी हैThe tradition of self-isolation among tribals is centuries old.

Jul 07, 2020 / 12:01 am

pushpesh

सुमात्रा के आदिवासी इसलिए नहीं लेते कोरोना का नाम

आदिवासी परंपराओं ने कोरोना महामारी से बचाए रखा

जकार्ता. इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप पर रहने वाले ओरंग रिंबा जनजाति के लोगों को उनके रहन-सहन और परंपराएं ने अब तक कोरोना महामारी से बचाकर रखा है। सेल्फ आइसोलेशन की पद्धति सदियों से उनके जीवन का हिस्सा रही है। और तो और आदिवासी कोरोना महामारी का नाम तक नहीं लेते, क्योंकि उन्हें डर है नाम लेने से वह पूरे आदिवासी समुदाय को जकड़ लेगी। 24 वर्षीय आदिवासी जंगत पिको ने कहा, ओरंग रिंबा की प्रथा में बीमारी का नाम जोर से नहीं लिया जाता। यदि हमने ऐसा किया तो बीमारी हमारे पास आ जाएगी। बीमारी के इर्द-गिर्द अंधविश्वास की ये प्रणाली पीको सहित जनजाति के पांच हजार सदस्यों में प्रचलित है। खांसी और बुखार जैसे शब्दों को तो अभिशाप से कम नहीं माना जाता। इसीलिए ओरंग रिम्बा जनजाति ने कोरोना को ‘कोरोरोइट’ नाम दे दिया।
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ऐसा है आदिवासी जीवन
पीको के माता-पिता और चार भाई-बहन पार्क के भीतर ही अद्र्ध खानाबदोश तरीके से जीवन जीते हैं, जो पीढिय़ों से चला आ रहा है। पैदा होने से अंतिम सांस तक यहीं की परम्पराओं के साथ जीना होता है। जब कोई बच्चा जन्म लेता है तो गर्भनाल नए पौधे के नीचे दबाई जाती है, अर्थात बच्चे के जन्म के साथ एक नया पेड़। जब किसी सदस्य की मृत्यु होती है तो पूरा समुदाय जंगल के नए इलाके में चला जाता है। इसे ‘मेलानगुन’ कहते हैं।
लंदन स्थित सर्वाइवल इंटरनेशनल की शोधकर्ता सोफी ग्रिग कहती हैं, संक्रमण के खतरे का भय भी समुदाय में साफ नजर आता है। कोरोना महामारी से काफी पहले भी यहां जंगल से बाहर जाकर आने वाले व्यक्ति को नियमों के मुताबिक कम से कम 24 घंटे क्वारंटाइन में बिताने पड़ते थे, जिसे ‘बेसासंदिंगो’ कहा जाता है। वे इस धारणा के चलते अलग-अलग क्षेत्रों में रहते हैं कि मैदानों में पानी के बहाव वाले इलाकों में बीमारी फैलती है। समूह में आपस में सामान्य अभिवादन यही है कि व्यक्ति स्वस्थ है बीमार।
ओरंग रिंबा आदिवासियों ने जब मार्च में दुनिया की इस संक्रामक महामारी के बारे में सुना तो बुजुर्गों ने क्वारंटाइन के नियम और कड़े कर दिए। खुद पीको के माता-पिता भी गहरे जंगलों में चले गए। उसने आखिरी बार अपने माता-पिता को एक माह पहले देखा था। पीको का कहना है कि हमें ‘बेसासंदिंगो’का पालन करना होगा। इसका अर्थ है कि हमें कम से कम 20 से 30 मीटर दूर रहना होगा।
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प्रकृति की ओर लौटने लगे
सेल्फ आइसोलेशन में रहने वाले ओरंग रिंबा के सदस्यों का कहना है कि कोरोनावायरस ने उनका पारंपरिक जीवन फिर लौटा दिया है, जो आसपास की बस्तियों में संपर्क के बाद खो गया था। इंडोनेशियन एजुकेशन के एनजीओ सोकोला के संस्थापक बुटेट मनुरुंग ने बताया, कोरोना एक तरह से कबिलाई संस्कृति के लोगों के लिए वरदान भी है, क्योंकि वे अब फिर से प्रकृति और अपनी खोई हुई संस्कृति की ओर लौटने लगे हैं। अपनी परंपराओं और प्रथाओं की ओर लौटने लगे हैं। दो दशक पहले ये जनजाति आत्मनिर्भर थी, लेकिन जब से जंगलों से रिश्ता कम हुआ, वे रोजगार के लिए आश्रित होते चले गए। नई पीढ़ी ने परंपरागत काम छोड़ दिए थे। अब महामारी के चलते उन्हें पारंपरिक काम सीखने का अवसर मिला है। 57 वर्षीय टुमेंग न्येनान्ग कहते हैं, जंगल में हर सेकंड एक नया सबक है।
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जनजाति के लोग अपनी परंपराओं के कारण ही इस महामारी से अब तक अछूते रहे हैं। उम्मीद है अब उनकी कबिलाई संस्कृति बच जाएगी, क्योंकि महामारी ने सबको फिर जंगलों की ओर लौटा दिया है। आदिवासियों के नियमों के मुताबिक पीको अपने मां-बाप को देख सकते हैं, लेकिन बाहरी दुनिया से संपर्कों के कारण अभी वन समुदाय से जुड़ नहीं सकते अर्थात वहां रह नहीं सकते, जब तक कि यह महामारी का खतरा पूरी तरह टल न जाए।

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