पीको के माता-पिता और चार भाई-बहन पार्क के भीतर ही अद्र्ध खानाबदोश तरीके से जीवन जीते हैं, जो पीढिय़ों से चला आ रहा है। पैदा होने से अंतिम सांस तक यहीं की परम्पराओं के साथ जीना होता है। जब कोई बच्चा जन्म लेता है तो गर्भनाल नए पौधे के नीचे दबाई जाती है, अर्थात बच्चे के जन्म के साथ एक नया पेड़। जब किसी सदस्य की मृत्यु होती है तो पूरा समुदाय जंगल के नए इलाके में चला जाता है। इसे ‘मेलानगुन’ कहते हैं।
ओरंग रिंबा आदिवासियों ने जब मार्च में दुनिया की इस संक्रामक महामारी के बारे में सुना तो बुजुर्गों ने क्वारंटाइन के नियम और कड़े कर दिए। खुद पीको के माता-पिता भी गहरे जंगलों में चले गए। उसने आखिरी बार अपने माता-पिता को एक माह पहले देखा था। पीको का कहना है कि हमें ‘बेसासंदिंगो’का पालन करना होगा। इसका अर्थ है कि हमें कम से कम 20 से 30 मीटर दूर रहना होगा।
सेल्फ आइसोलेशन में रहने वाले ओरंग रिंबा के सदस्यों का कहना है कि कोरोनावायरस ने उनका पारंपरिक जीवन फिर लौटा दिया है, जो आसपास की बस्तियों में संपर्क के बाद खो गया था। इंडोनेशियन एजुकेशन के एनजीओ सोकोला के संस्थापक बुटेट मनुरुंग ने बताया, कोरोना एक तरह से कबिलाई संस्कृति के लोगों के लिए वरदान भी है, क्योंकि वे अब फिर से प्रकृति और अपनी खोई हुई संस्कृति की ओर लौटने लगे हैं। अपनी परंपराओं और प्रथाओं की ओर लौटने लगे हैं। दो दशक पहले ये जनजाति आत्मनिर्भर थी, लेकिन जब से जंगलों से रिश्ता कम हुआ, वे रोजगार के लिए आश्रित होते चले गए। नई पीढ़ी ने परंपरागत काम छोड़ दिए थे। अब महामारी के चलते उन्हें पारंपरिक काम सीखने का अवसर मिला है। 57 वर्षीय टुमेंग न्येनान्ग कहते हैं, जंगल में हर सेकंड एक नया सबक है।