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जैसलमेर

Holi special: 328 वर्षों से कर रहे परंपरा का निर्वहन: चौवटिया जोशी देखते तक नहीं है होली की ‘झाळ’

पूरे देश में रविवार को होली का त्यौहार हर्षोल्लास के साथ मनाया जाएगा। जिसको लेकर आमजन में उत्साह है। जबकि इस उल्लास के बीच पुष्करणा ब्राह्मण समाज की एक जाति ऐसी भी है, जो गत 328 वर्षों से आज के दिन त्योहार नहीं मनाकर शोक रखते है।

जैसलमेरMar 23, 2024 / 08:43 pm

Deepak Vyas

Holi special: 328 वर्षों से कर रहे परंपरा का निर्वहन: चौवटिया जोशी देखते तक नहीं है होली की 'झाळ'

Holi special: 328 वर्षों से कर रहे परंपरा का निर्वहन: चौवटिया जोशी देखते तक नहीं है होली की ‘झाळ’

पूरे देश में रविवार को होली का त्यौहार हर्षोल्लास के साथ मनाया जाएगा। जिसको लेकर आमजन में उत्साह है। जबकि इस उल्लास के बीच पुष्करणा ब्राह्मण समाज की एक जाति ऐसी भी है, जो गत 328 वर्षों से आज के दिन त्योहार नहीं मनाकर शोक रखते है। गौरतलब है कि पुष्करणा ब्राह्मण समाज में एक उपजाति है पाराशर गौत्रीय ‘चोवटिया जोशी’। शास्त्रों के अनुसार ऋषि पाराशर ज्योतिष शास्त्र के आदि शोधकर्ता माने जाते है। उन्हीं के गौत्र वंशज है चोवटिया जोशी। इस गौत्र के परिवारों में यही होली का पखवाड़ा शोक का पखवाड़ा माना जाता है। इसका कारण आज से करीब 328 वर्ष पूर्व उनके कुल में हुई एक अविस्मरणीय दुर्घटना है। पोकरण क्षेत्र के माड़वा गांव में आजादी से पहले तक सिंहढायच खांप के चारणों का सांसण यानी माफी-जागीर का गांव हुआ करता था। इस गांव के चारण और जोशी परिवारों का सम्मानजनक ओहदा था। माड़वा में 400 वर्ष पूर्व चोवटिया जोशियों के काफी परिवार रहते थे।

40-50 परिवार करते थे निवास

वंशावलियां संरक्षित रखने वाले नागौर जिलांतर्गत भैरुंदा निवासी राजेन्द्रकुमार भाट की बही में उपलब्ध तथ्यों के अनुसार 18वीं शताब्दी में माड़वा गांव में लगभग 40-50 जोशी परिवार बसे हुए थे। उनमें पंडित हरखाजी जोशी सर्वमान्य मुखिया, विद्वान और मौजीज व्यक्तित्व के धनी थे। हरखाजी का विवाह फलोदी के पास मल्हार गांव के बोहरा परिवार में हुआ था। उनकी पत्नी का नाम लालांदेवी था।

घटना को याद कर हो जाते है रौंगटे खड़ेविक्रम संवत् 1752 के फाल्गुन मास में होली के दिन समूचे माड़वा गांव में हर्षोल्लास से होलिकोत्सव मनाया जा रहा था। हरखाजी जोशी की पत्नी लालांदेवी अपने सबसे छोटे पुत्र भागचंद्र को गोद में लेकर होलिका दहन स्थल की पूजा के बाद परिक्रमा कर रही थी, तभी अचानक हंसता खेलता किलकारियां करता शिशु भागचंद्र मां की गोद से छिटक कर जलती होली में जा गिरा। आनन-फानन में मां भी अपने पुत्र को बचाने के लिए अग्नि की लपटों से घिर गई। यहां उपस्थित अन्य परिवारजन व ग्रामीण कुछ सोचते व बचाने के प्रयास करते, उससे पहले ही मां-बेटे दोनों जलती होली में होम हो चुके थे। संपूर्ण गांव में शोक व्याप्त हो गया। होली के रासरंग की तैयारियां धरी की धरी रह गई। उत्सव पर घरों में बने मिष्ठान और पकवान पशुओं को डाल दिए गए और अगले दो दिन तक किसी भी परिवार में चूल्हा नहीं जला। इस घटना को याद कर आज भी चौवटिया जोशी परिवार के लोगों के रौंगटे खड़े हो जाते है और रुह कांप जाती है।

नहीं देखते होलिका दहन

इस घटना के कारण केवल माड़वा ही नहीं, बल्कि अन्य स्थानों पर रहने वाले समस्त चोवटिया जोशी परिवारों ने अपने और अपने वंशजों के लिए होली को शोक का पर्व घोषित कर दिया। तभी से आज तक समस्त चोवटिया जोशी परिवारों में होली- पूजन व होली की झाळ यानी लपटें देखना वर्जित है। इस जाति में होलिकाष्टक से धुलंडी तक के दिन शोक के दिन माने जाते है। इन दिनों में होलिका दहन, दर्शन और पूजन तो वर्जित है ही, इसके साथ होली पर नवजात शिशुओं की ढूंढ़ करवाना, नए वस्त्र सिलवाना-पहनना, भोजन में मिष्ठान/पकवान बनाना और मनोरंजन कार्यक्रम आदि भी वर्जित माने जाते है। चोवटिया जोशी परिवार देश-विदेश में कहीं भी बसे हों, आज भी इस शोक परम्परा का कड़ाई से पालन करते है।

पाक में रहने वाले परिवार भी करते है पालन

पाकिस्तान के सिंध प्रांत में रोहड़ी, मीठी, छाछरी, अमरकोट आदि स्थानों पर आज भी कुछ चोवटिया जोशी परिवार निवास करते है। ये परिवार भी इस परंपरा का कड़ाई से पालन करते है। उनकी ओर से भी होली का त्यौहार नहीं मनाया जाता है।

आज भी हरा है जाल का वृक्ष

माड़वा गांव में इन मां सती के रूप में पूजित लालांदेवी व उनके पुत्र भागचंद्र का एक मंदिर स्थापित है। मान्यता के अनुसार दुर्घटना के कुछ समय बाद दहन स्थल पर जाल व कैर के वृक्ष उग आए थे। उन्हीं वृक्ष की छाया तले मां सती की मूर्ति स्थापित की गई। मान्यता है कि जब तक यह जाल वृक्ष हरा रहेगा, मां सती के चमत्कार प्रत्यक्ष रहेंगे। आजादी से पूर्व तक कुछ जोशी परिवार माड़वा गांव में स्थायी रूप से रहते थे। बदलते युग में रोजगार, शिक्षा व अन्य सुविधाओं की आवश्यकता के कारण शहरों-कस्बों में बस जाने के फलस्वरूप आज कोई चोवटिया जोशी परिवार माड़वा में नहीं रहता है, लेकिन विभिन्न स्थानों पर बसने वाले चोवटिया जोशी यहां दर्शन करने, विवाह के बाद नवदम्पत्ति की जात देने, शिशुओं के मुंडन संस्कार के लिए यहां आते है।

शोधग्रंथ में है वर्णित

डिंगल के प्रख्यात कवि व शोधकर्ता गिरधरदान रतनू दासोड़ी की ओर से लिखित राजस्थानी ग्रंथ ‘ढळती रातां, बहगी बातांÓ भाग 2 में भी यह वृतांत विस्तार से वर्णित है। माड़वा गांव में जहां यह घटना हुई, वहां उगा वृक्ष आज भी पूरी तरह से हरा-भरा है। तीन सदियों बाद भी जाल का हरा वृक्ष यह गाथा संजोए हुए है। मैं स्वयं भी इसी वंश के 11वीं पीढ़ी का वंशज हूं।

– नवल जोशी, कवि, साहित्यकार व इतिहासकार, पोकरण

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