ऑनलाइन मंजूरी लेने की चर्चा के दौरान लोगों ने बताया कि ज्यादातर श्रमिक इस प्रक्रिया से वाकिफ नहीं है। चाहकर भी वे इसे नहीं भर पा रहे हैं। लिहाजा वे सीधे सरकारी कार्यालय पर पहुंचकर अपना नाम समेत अन्य जानकारी दर्ज करवाकर मंजूरी प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं। लेकिन इनकी मदद के लिए न तो प्रशासन सामने आ रहा है और न इनके इलाके के प्रतिनिधि कुछ करना चाहते हैं। कुछ खास अवसरों पर श्रमिकों के अगुवा बनने का दावा करने वाले कतिपय संगठनों के प्रमुख लोग तो इन दिनों अज्ञातवास में हैं। यदि किसी ने फोन भी किया तो हाथ उपर कर दे रहे हैं।
जिस दौर में लोगों को मदद की सबसे ज्यादा जरूरत है, उस समय ही नेता से लेकर जनप्रतिनिधि गायब हैं। कई लोगों ने बताया कि सरपंचों से लेकर पार्षदों तक को इस संबंध में फोन करने पर किसी तरह की मदद का आश्वासन देने की बजाय उल्टे समझाने लगते हैं। जबकि उनकी परेशानी दूर करने के लिए कोई मदद की बात ही नहीं कर रहे। कई श्रमिकों ने तो यह आरोप लगाया कि कहीं ने कहीं औद्योगिक इकाई के संचालकों का दबाव भी है कि यदि मजदूरों को गांव जाने दिया गया तो जल्दी नहीं आएंगे और लॉकडाउन खत्म होने पर कंपनियों में उत्पादन पर असर पड़ेगा। लेकिन यहीं लोग यह नही समझ रहे हैं कि भूख और मानसिक तनाव से जिंदा बचेंगे तब तो काम करने लायक रहेंगे।
विरेन्द्र कुमार का कहना है कि मैं चित्रकूट स्थित अपने गांव जाना चाहता हूं। इसके लिए छीरी पुलिस थाने से लेकर टाउन और तहसीलदार कार्यालय तक गया। हर तरफ पुलिस ने डंडे लेकर दौड़ा लिया। समझ नहीं आ रहा है कि गांव कैसे पहुंचेंगे। यहां न काम है और भोजन। हमारी व्यथा समझने की जगह हमारे नेता से लेकर जनप्रतिनिधि और अधिकारी संवेदनहीनता का परिचय दे रहे हैं।