पत्रिका न्यूज नेटवर्क
वाराणसी. रंग-बिरंगी छतरियां गंगा घाटों की पहचान रही हैं। यह न केवल धूप और बारिश से बचाव करती हैं बल्कि अपने आप में एक संस्कृति समेटे रहती हैं। हरिद्वार से लेकर काशी तक हर घाटों पर फैला रंग-बिरंगी छतरियों का यह संसार अब सिमट रहा है। कोरोना ने इनकी रंगत भी फीकी कर दी है। बीते दो साल से यह बेरंग हैं। छतरियों की छाजन में लगे कपड़े फट गए हैं। छतरियां टूट गयी हैं। जजमानों के न आने से पंडों और पुरोहितों के भी दुर्दिन चल रहे हैं। घाटों पर बैठने वाले पंडे-पुरोहितों को ये छतरियां धूप और बारिश से बचाती हैं। इसी के नीचे बैठकर वे धार्मिक कर्मकांड संपादित करते हैं। इनसे घाटों का एक अलग आकर्षण होता है।
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बांस की छतरियां
विशाल आकार की ये छतरियां बांस से बनती हैं। बांस इसलिए क्योंकि इसे शुद्घ और पवित्र माना गया है। बांस की पतली खपच्चियों से इसे गोल आकार दिया जाता है फिर उस पर बांस की चटाई लगाई जाती है। यह एक मजबूत डंडे पर खड़ी रहती हैं। सर्दी, गर्मी, तेज धूप और बारिश से छतरियों की चटाई खराब हो जाती है। इसे बचाने के लिए घाट पर महिलाओं की दान की गईं साडिय़ां इस पर लपेट दी जाती हैं, जिससे ये रंग-बिरंगी हो जाती हैं।
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नहीं बचे बनाने वाले
कभी बनारस में इन छतरियों के बनाने वाले कई कारीगर हुआ करते थे। अब काशी में महज एक ही परिवार बचा है। गंगोत्री सेवा समिति के संरक्षक व गंगा सेवा समिति के अध्यक्ष पं. कन्हैया त्रिपाठी बताते हैं कि शहर के घौसाबाद इलाके में गुलाब नाम का व्यक्ति अब भी छतरियां बनाने का काम करता है। एक छतरी ढाई से तीन हजार में तैयार होती है। पहले श्रद्घालु अपने पंडों को यह छतरियां दान करते थे, पर अब यह श्रद्धा भाव कम हुआ है। महंगी होने के कारण पंडे-पुरोहित और हज्जाम अब बिना छतरियों के घाटों के किनारे बैठ रहे हैं। रही सही कसर कोरोना ने पूरी कर दी है। यही वजह है कि इसके कारीगरों ने दूसरे धंधे तलाश लिए हैं। अन्य पारंपरिक कलाओं की तरह यह भी अंतिम सांसे गिन रही है।