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परिवेश से कटती नव प्रयोगवादी कला

राजस्थान के चित्रकारों का समकालीन कला आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है

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Sunil Sharma

Jan 09, 2017

art gallery

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- चन्द्रकांता शर्मा

राजस्थान के चित्रकारों का समकालीन कला आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है तथा एक समय था, जब यहाँ के चित्रकारों की एक पूरी पीढ़ी पूरे मनोयोग से आधुनिक प्रयोगवादी चित्रों से चित्रफलक को नए आयाम दे रही थी। उस समय चित्रकारों में काम के प्रति निष्ठा तथा चित्रकारी विद्या के लिए कुछ करने का हार्दिक जज्बा था। राजस्थान जबकि परम्परावादी चित्रों के लिए जाना जाता रहा है, परन्तु यहाँ के आधुनिक चित्रकारों ने लीक को तोड़कर आधुनिक कला कर्म को अपनाया और वे तत्कालीन स्थितियों के कोपभाजन भी हुए, परन्तु वे झुके नहीं तथा यथार्थपरक प्रयोगवाद के जरिए अपनी रंग यात्रा जारी रखते हुए कला को ऊँचाईयाँ देते रहे। उसी परिश्रम का फल था कि राज्य के अनेक चित्रकारों का काम अनवल भारतीय स्तर में पहचाना गया तथा समसामयिक कला परम्परा का विकास होता गया।

आज राज्य में स्थितियाँ बदल गई हैं। जो लोग समसामयिक कला को अपनाएँ हुए हैं, वे लोग प्रोफेशनल होते जा रहे हैं तथा बिना काम किए ही समकालीन कला में राजनीति करके अपनी पहचान बनाने की कोशिशों में लगे हुए हैं। आज चित्रकार मेहनत नहीं करना चाहते तथा साल- दो साल काम करने के बाद ही अकादमी पुरस्कारों की जुगाड़ में लग जाते हैं। चित्रकार बनने की जो प्रक्रिया है, उसे पार नहीं करना चाहते, बस रातों रात उच्चस्तरीय कलाकार बनने की सोचते रहते हैं। बहुत शॉर्ट पीरियड में कला का विद्यार्थी भी चित्रकारों की सृजनशील पीढ़ी में शरीक हो जाना चाहता है। समकालीन कला आन्दोलन को इस प्रवृत्ति से बड़ा धक्का लगा है तथा अभिनव प्रयोगवाद का काम बीच में ही रूक गया है। आने वाली पीढ़ी के किसी कलाकार में राष्ट्रीय स्तर पर मान-सम्मान पाने की सम्भावना नहीं दिखती, यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है।

कला दीर्घाओं में जो काम देखने में आ रहा है, वह बहुत ही सपाट है तथा वह गहराई को नहीं दर्शाता है। यहाँ तक रंगों के प्रयोग भी चमत्कारिक नजर नहीं आते हैं और सामयिक युगबोध तथा वर्तमान जीवन की बेचैनी चित्रों में दिखाई नहीं देती। चित्रफलक सहज-सरल चित्रों से अटे पड़े हैं तथा चित्रकारों में एक ही तरह के चित्र बनाने की परम्परा दिखाई देती है। हर चित्रकार की अपनी शैली, अपना रंग तथा अपना भाव होना चाहिए, परन्तु यह दिखाई नहीं दे रहा। एकरसता के कारण समकालीन कला ऊब के कगार पर आ खड़ी हुई है तथा ऊल-जुलूल चित्रों की अनुकृतियाँ राज्य की कला को नीचे ले जा रही हैं। चित्रकारों में मनोयोग की कमी है तथा बतौर शौक के प्रदर्शनियों में चित्र टाँगने की ललक है। जिस राज्य के चित्रकारों ने समकालीन कला आन्दोलन में राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व किया हो, वहाँ कला का अकाल दुखद है।

कला के क्षेत्र में निपजे इस अभाव के लिए कला शिक्षा को भी दोषी माना जा सकता है। राज्य के कला शिक्षक या तो शिष्यों के आगे नहीं आने देने की राजनीति कर रहे हैं अथवा विद्यार्थी शिक्षकों को 'गुरू' का आदरभाव नहीं दे पा रहे। वे थोड़ा सा काम करने के बाद अपने आपको 'परफेक्ट आर्टिस्ट' घोषित कराने की चाल बाजियों के शिकार हो रहे हैं। यह प्रवृत्ति कला के लिए बहुत ही हानिकारक है। कला शिक्षक एवं विद्यार्थी दोनों की अपनी-अपनी जगह भूमिका है तथा उन्हें पूरी संजीदगी के साथ उसे निबाहनी चाहिए। कोई आवश्यक नहीं होता कि एक अच्छा शिक्षक बहुत अच्छा चित्रकार भी हो। परन्तु हमारे यहाँ पहले कलाकार को बचाने की चिन्ता है, जिससे शिक्षक कर्म न्यायप्रद नहीं हो पाता तथा विद्यार्थियों को इससे लाभ नहीं मिल पाता।

जहाँ तक कला संस्थाओं का प्रश्न है, वे भी समकालीन कला को बढ़ाने तथा नया रूप देने के प्रति सजग नहीं हैं। वहाँ भी संस्था की बागडोर संभालने तथा चुनावों में जीत की राजनीति चल रही है। वर्षों से वे ही लोग बार-बार पदाधिकारी बन जाते हैं, इससे उनकी स्वार्थसिद्धी तो हो जाती है, परन्तु सदस्यों को आगे आने का मौका नहीं मिलता जिससे उनमें शनै: शनै: कुण्ठा घर करने लगती है एवं कला के प्रति उनके मन में उपेक्षा के भाव पनपने लगते हैं। चन्द लोगों के एकाधिकार के कारण न तो उनकी पहचान बन पाती और न ही वे लोग अन्य लाभ पाने के अधिकारी बन पाते। यदि उसके बाद भी 'छुटभैया' प्रयास करते हैं तो उन्हें समुचित प्रोत्साहन नहीं मिल पाता तथा उन्हें 'डिप्रेस' किया जाता है, उन्हें मान्यता नहीं मिलती। क्योंकि जो तथाकथित बड़े चित्रकार हैं, वे उन्हें आगे आने देना नहीं चाहते। यह लहज मानवीय प्रवृत्ति का ही प्रतिफल है। कला संस्थाओं का अब सैटअप बदलना चाहिए तथा वहाँ नए प्रतिनिधित्व को स्थान मिलना चाहिए तभी उनमें जो लोग सम्मिलित हैं, उनका कल्याण हो सकता है।

ललितकला अकादमी भी कला संस्थाओं की इसी राजनीति का शिकार हो जाती है। कला संस्थाओं के प्रतिनिधियों का वहाँ बाहुल्य होने से वहाँ भी उसी ढर्ऱे व नीतियों से काम होने लगता है। वे लोग भी अकादमी बजट को बँधे-बँधाएँ मदों पर खर्च करके अपनी इतिश्री कर लेते हैं। अकादमी के कर्ता-धर्ता भी चन्द आकाओं को पकड़कर अपना काम चलाते हैं, क्योंकि उनकी ओर से ही किसी प्रकार की शिकायत का खतरा होता है और जब उनके आदेशों का पालन होता है तो उसमें समग्र कला विकास का मार्ग अपने आप अवरूद्ध हो जाता है तथा निहित स्वार्थो की विषबेल पनपने लगती है।

राज्य की समकालीन कला में आए इस होच-पोच, धान-मसान तथा अराजकता से बचने के लिए जहाँ कला संस्थाओं तथा अकादमी की भूमिका महति हो जाती है, वहीं नए चित्रकारों को अपने काम में पूरी संजीदगी दिखानी चाहिए तथा युगबोध एवं मानवीय संभास और त्रासदियों को उभारने में सजग रहना चाहिए। अन्यथा अराजकता पराकीष्ठा पर है तथा आधुनिक चित्रकला की एकरसता बढ़ती चली जाने वाली है, इससे बचना चित्रकार का दायित्व है।

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