
Natural Resources
वर्तमान में जनसंख्या विस्फोट के संक्रमण की तृतीय अवस्था से गुजर रहे भारत की जनसंख्या 2050 तक चीन को पीछे छोड़ दुनिया में सर्वाधिक होगी। इससे उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनो पर दबाव बढऩे से जल,वायु,मृदा क्षमता में कमी हो रही है। एक ओर इन उपलब्ध प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का दशकों से मानव द्वारा अविवेकपूर्ण उपभोग से संचालित आर्थिक विकास की प्रक्रिया द्वारा भारत जैसे विकासशील देश में भूमिक्षरण, वन संसाधनों का ह्रास, मृदा का तीव्र अपरदन और जैव विविधता को नुकसान जैसी गंभीर पर्यावरणीय समस्यायो का जन्म हुआ है, औधोगिकरण से नगरीकरण में परिवर्तित हुई।
आधुनिक लौह एवं ऊर्जा सभ्यता में उपभोग के बदलते स्वरूप ने आज ऊर्जा की बड़ी मांग को प्रेरित किया है,जिसके परिणामो में से एक दिल्ली में वायु गुणवत्ता में गिरावट के भीषण संकट के रूप में देखा गया। पिछले तीन दशकों में जीवाश्म ईंधन के ऊर्जा प्रक्रमों में किए जा रहे असीमित उपयोग से उत्सर्जित ग्रीन हाऊस गैसों के प्रभाव तथा ओजोन क्षरण से पृथ्वी के तापमान में हुई औसत 2.1 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी ने दुनिया के सामने ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन की नयी और गंभीर समस्याए खड़ी की है।
एक ओर तो भारत में वन संसाधन अपने आदर्श स्वरूप से काफी कम मात्रा केवल २१ प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र पर ही अवस्थित है, वंही विभिन्न राज्यो के मध्य वनों के असन्तुलित वितरण एवं ईंधन और अन्य उपयोग हेतु इनकी अँधाधुंध कटाई से वर्षा एवं जलवायु का स्वरुप विकृत हो रहा है जिसके दुष्परिणाम कृषि समस्याओ एवं ज्वालामुखी,बाढ़,सूखा, अलनीनो जैसी प्राकृतिक आपदाओ के रूप में सामने आ रहे है, एक अनुमान के अनुसार भारत में कृषि योग्य भूमि का 60 प्रतिशत भाग भूमि कटाव, जल भराव एवं लवणता से ग्रस्त है।
दूसरी ओर प्रदूषणकारी उत्सर्जित गैसों से होने वाली कृषि एवं वनस्पति के लिए हानिकारक अम्ल वर्षा की समस्या से कृषि प्रधान देश में प्रति व्यक्ति कृषि उत्पादकता में कमी के कारण खाद्य सुरक्षा का संकट गहराता जा रहा है, हालिया भारतीय कृषि अनुसंधान द्वारा जारी एक प्रतिवेदन में यह चेताया गया है कि तापमान में 3 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी सालाना गेंहू की पैदावार में 15 से 17 प्रतिशत की कमी कर देगी जो एक विकाशील अर्थव्यस्था के लिए खतरे का संकेत है।
जलवायु परिवर्तन की घातक दशाओं को नियंत्रित करने के उद्देश्यय से सँयुक्त राष्ट्र द्वारा वर्ष 2015 में आयोजित किये गये पेरिस जलवायु समझौते पर विकसित एवं विकासशील देशों के मध्य चल रहे टकराव के कारण से अपने-अपने ऊर्जा लक्ष्यों में कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित कर वैश्विक तापमान बढ़ोतरी में 2030 तक 2 प्रतिशत की कमी लाने का वह उद्देश्यय आज असम्भव सा प्रतीत होता दिखाई दे रहा है। ऐसे में देश के लिए पर्यावरणीय अनुकूल विकास की ऐसी नीति अपनाने की जरूरत है, जिससे संसाधनों के समुचित विवेकपूर्ण वर्तमान उपभोग के साथ भविष्यगामी पीढ़ी के लिए भी संसाधन के उपभोग के अवसर सुनिश्चित हो सके।
Published on:
22 Mar 2018 06:53 pm
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