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लिखना बीमार मन की तीमारदारी भी

मन के आसक्त होते ही चाहनाएँ उसे जकड़ लेती है। ये चाहनाएँ , इच्छाएँ ही सभी कष्टों की जड़ है।

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Jameel Ahmed Khan

Jul 18, 2018

Writing

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कबीर कहते हैं-

“ चाह मिटी चिंता मिटी मनवा बेपरवाह
जिसको कछू नहीं चाहिए वाही शाहंशाह।”


मन के आसक्त होते ही चाहनाएँ उसे जकड़ लेती है। ये चाहनाएँ , इच्छाएँ ही सभी कष्टों की जड़ है। यह ठीक है कि जिसकी इच्छा ही समाप्त है उसकी सारी चिन्ताएँ भी दूर हो गई , वह वाकई शहशांह बन गया। वह वाकई मन का राजा, जिसने जब चाहा उसका मन उल्लासपूर्ण हो गया, किसी अन्य की आस-उपेक्षा से सर्वथा दूर।

जीवन मन की चाकी पर चलता है और मन निजता को प्राथमिकता देता है। आप किसी मन की प्राथमिकी में दर्ज ही नहीं और आस कर बैठे हो सात जीवन पार की , तो यह आपकी खोटी सोच है।

संबंध-संबंधी, आत्मीय -अनात्मीय इन शब्दों के भँवरजाल में विचरते हैं तो एक शब्द दिखाई देता है #तदीय । इस सार्वनामिक शब्द का अर्थ है , उससे संबंध रखने वाला या उसका । यहाँ प्रयुक्त तद् का अर्थ है उस समय , वहाँ। इसी से #तदा (उस समय या तब) बना।
इसी तद् से #तद्नु ( उसके पीछे) , #तद्नुसार (उसके अनुरूप) , #तदुपरांत और #तद्गत ( उससे संबंधित, उसमें व्याप्त) आदि शब्द बनें। इसी तद्गत का #तद्रूपता (सादृश्य) में विलय होना ही जीवन सार्थकता है। अगर तद्रूपता नहीं तो रिश्तों की डोर तन जाती है।

हम #तदाकार (उस जैसा ही ) हो पाते हैं तभी आत्मिक यात्रा , नहीं तो बस अनुकूलता के गलियारों की भटकन मात्र। मन , भाव और विचारों में तद्रूपता हेतु स्व से ऊपर उठने का प्रयत्न ज़रूरी है और जब यह हो गया तो काम ही निष्काम हो गया।

यही कबीर कह गए हैं-

“नर नारी सब नरक है, जब लग देह सकाम
कहै कबीर ते राम के जो सूमिरै निहकाम।”
“सब धरती कागद करूँ,लेखन सब बनराय ।
सात समंद की मसि करूँ, गुरु गुन लिखा न जाय ॥”

कबीर कहते हैं कि सम्पूर्ण पृथ्वी को कागज-पोथी बना लूँ , सब जंगल को क़लम में बदल दूँ और सातों समुद्रों की स्याही बनाकर लिखने पर भी गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते। यह गूढ बात है,गुरू बात है , गुर की बात है।

कहा गया है कि गुरु तत्त्व सृष्टि के पोर-पोर में हैं बूँद से लेकर समन्दर तक , बूटे से लेकर वटवृक्ष तक और सिकता से लेकर हिमशिखर तक , खग, विहंग , चराचर जगत् का हर उपादान इस तत्त्व से आबाद है। शायद इसीलिए कबीर इस गुरु गुन को जितना गाते हैं ,कम ही पाते हैं।

विडम्बना है कि #गुरु शब्द को हम सभी जानते तो हैं पर पहचान नहीं पाते । कारण बस यही कि उस #गुरुताई के आगे हमारा तिनके सा अस्तित्व पर्वत बन जो खड़ा हो जाता है। गुरु #गुणना है, गुरु #गुनना है , गुरु #गुणमंता (गुणी) है। जाने क्यों फिर गुरु का #गुणानुवाद(प्रशंसा, गुणकथन) करने में यह आधुनिक युव मन उससे दूर भागता है।

गुरु #गुणाढ्य हैं , गुणी हैं । वैसे शब्द की ही बात कर रहें हैं तो गुणाढ्य पैशाची भाषा के एक कवि भी हुए हैं जिन्होंने ‘वड्डकहा’ लिखी। इसी के आधार पर औचित्य सम्प्रदाय के क्षेमेन्द्र ने ‘बृहत्कथा’ और सोमदेव ने ‘कथासरित्सागर’ नामक पुस्तक लिखी।

गुरु जो ऊँचा , गुरु जो भारी , गुरु जो वृहत्तर , गुरु जो आदरणीय इसीलिए कहा गया है कि सात द्वीप, नौ खण्ड, तीन लोक और वेद वर्णित इक्कीस ब्रह्माण्डों में से गुरु के समान कोई उपकारी नहीं(सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड )।

ज्योति के पथ पर ले जाने वाले इस निहितार्थक ‘गुरु’ तत्त्व को पुष्य नक्षत्र सा सात्त्विक मान ले तो गुरुकुल में रहे बिना ही #गुरुआई , #गुरुता सीखी जा सकती है। भाँति -भाँति के चोगा धारियों से मिलने की अपेक्षा जीवन की माला के एक -एक #गुरिया (मनका) को ही पढ लिया जाए, गुन लिया जाए तो जीवन सार्थक हो जाएगा। यह गुरिया ही #गुर सिखाता है, बिना किसी लिपि के चुपचाप, साँसों के मनकों पर थाप देकर।

गुरुमुख से दीक्षित होकर ही तो नानक ने एक लिपि चलाई जिसे हम #गुरुमुखी के नाम से जानते हैं। चींटी से लेकर हाथी तक , बालक से लेकर वृद्ध तक हर वय , जीव , अवस्था एक पाठ सिखाती है, जीवन का पाठ। वहाँ सीधी सपाट डगर है जिसे देखने का गुर चाहिए , वहाँ कोई #गुलझटी (उलझन) नहीं है पर देखने का वैशिष्ट्य तो है ही।

गुरु को मानो तो एक ही की तरह , उसमें खुद को और उसकी खुदी में खुद को ज्यों कि बूँद समा जाती है समन्दर में, अलगाव नहीं, द्वैत नहीं , यही उस गुरु तक पहुँचने का रास्ता भी है।

यही तो कबीर भी दुई के फेर को नकारते हुए कहते हैं-

“साहिब मेरा एक है, दूजा कहा न जाय ।
दूजा साहिब जो कहूँ, साहिब खडा रसाय ॥”

~विमलेश शर्मा

- फेसबुक वाल से साभार