शैलेंद्र तिवारी @ भोपाल। हारने के बाद भी भारतीय जनता पार्टी के खेमे में जश्र है। कहने को जश्न दो सीटों पर जीत का है, लेकिन इसमें वह हार भी शामिल है, जो विनोद गोटिया के जरिए उसे मिली है। गोटिया की हार से भाजपा ने पल्ला झाड़ लिया है। गोटिया को निर्दलीय की हार बताकर किनारा कर लिया गया है। लेकिन सच पल्ला झाडऩे से छुप नहीं जाता। यही वजह है कि जीत के इस जश्न में हार की कसक दबी हुई है। भले ही भाजपा विनोद गोटिया की हार को निर्दलीय प्रत्याशी की हार बताकर पल्ला झाड़ रही हो, लेकिन हकीकत यही है कि कांग्रेस के मुकाबले भाजपा को हार का सामना करना पड़ा है। हार भी उस स्थिति में जब, किसी भी हालत में जीतने का दाव खेला जा रहा था।
विधायकों की खरीद-फरोख्त से लेकर कांग्रेस को तोडऩे तक की पूरी तैयारी की जा रही थी। लेकिन कांग्रेस की एकजुटता ने भाजपा के हर मंसूबे पर पानी फेर दिया। एकजुटता भी ऐसी नजर आई कि उसने प्रदेश में मरी हुई कांग्रेस के अंदर संभावनाएं पैदा कर दी। भले ही भाजपा के रणनीतिकार इसे कुछ भी कहें लेकिन असल में हार तो भाजपा की हुई है और भाजपा की उस रणनीति की भी, जिसमें तीसरे उम्मीदवार की जीत के दावे किए जा रहे थे।
भाजपा के अनिल माधव दवे, चंदन मित्रा और कांग्रेस की विजयलक्ष्मी साधौ की रिक्त हुई राज्यसभा सीटों के लिए चुनाव होना थे। भाजपा के पास दो सीटों का पूर्ण बहुमत था, जबकि कांग्रेस के पास सीट जीतने के लिए एक वोट की कमी थी। ऐसे में यह बात पूरी तरह से साफ थी कि कांग्रेस उम्मीदवार की जीत होगी। लेकिन भाजपा के रणनीतिकारों ने अलग ही रणनीति रची। कांग्रेस उम्मीदवार विवेक तन्खा को तीसरी सीट पर हराने के लिए तीसरा उम्मीदवार उतारने की वकालत शुरू कर दी। ऐसी वकालत कि भाजपा के अंदर ही उम्मीदवार चयन को लेकर राजनीति शुरू हो गई।
आखिर में उम्मीदवार भी मिला और उसके पक्ष में पूरी तैयारी भी शुरू हुई। लेकिन भाजपा उसे जिताने में नाकाम साबित हुई। भाजपा की इस राजनीतिक नाकामी ने प्रदेश में कांग्रेस को नया राजनीतिक जीवन जरूर दे दिया। जिस तरह से कांग्रेस पहली दफा कमलनाथ के नेतृत्व में एक साथ पूरी ताकत से खड़ी नजर आई, उसने 2018 के विधानसभा चुनावों की एक कहानी जरूर बयां कर दी है।
कमलनाथ ने प्रदेश में प्रवेश की शुरुआत ही जीत से कर कांग्रेस कार्यकर्ताओं के कमजोर मनोबल को जो मजबूती दी है, उससे एक बात पूरी तरह से साफ है कि आने वाले दिनों में प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस कुछ अलग ही अंदाज में नजर आएगी। भाजपा की इस राजनीतिक असफलता ने प्रदेश में कांग्रेस और बसपा को करीब आने का मौका भी दे दिया है। प्रदेश में वापसी की संभावनाएं तलाश रही कांग्रेस के लिए यह किसी संजीवनी से कम नहीं है।
प्रदेश में बसपा का प्रभाव 110 सीटों पर सीधे तौर पर है। जिनमें उत्तर प्रदेश से लगी हुई बुंदेलखंड की 26, ग्वालियर-चंबल की 34, विंध्य की 30 और महाकौशल की 20 सीटें हैं। ऐसे में कांग्रेस के लिए बसपा के साथ खड़े होना कहीं न कहीं, भविष्य की संभावनाओं को जन्म देगा। इतना ही नहीं, बसपा भी भविष्य में कांग्रेस से इस समझौते की कीमत जरूर लेगी। अब यह कीमत क्या होगी, यह तो 2018 के चुनावों में ही पूरी तरह से साफ नजर आएगा, लेकिन एक बात साफ है कि भाजपा की राजनीतिक चाल ने उसे ही दोहरी मात दी है। कुल मिलाकर भाजपा को अपनी ही रणनीतिक चाल से एक बड़ी राजनीतिक हार झेलनी पड़ी है।