दर्द से तड़पती बच्ची को दिलासा देने के बजाय, उसके गुनहगार को तत्काल सींखचों के पीछे भेजने के बदले सभी गली निकालने में लगे थे कि कैसे मामले को रफा-दफा किया जा सके। इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि एफआईआर दर्ज कराने के लिए परिजन को धरना देना पड़ा। क्या निर्भया के बाद बदले गए कानून को अफसरान इतनी जल्दी घोलकर पी गए हैं। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा कि स्कूल की चहारदिवारी जहां रोज शहर के लाखों अभिभावक अपने बच्चों को सुरक्षित महसूस करते हैं, उन पर इस घटना का क्या असर पडऩे वाला है।
आपको क्या लगता है यह कोई मामूली घटना है या वह बच्ची कोई झूठी शिकायत लेकर आई थी। क्या वरिष्ठ अफसरों को भी थाने के जिम्मेदारों की करतूत का पता नहीं चला। वे क्यों खामोश बैठे रहे। क्या शहर की व्यवस्था इतनी लुंज-पुंज हो गई है कि उसे न कुछ दिखाई देता है न सुनाई देता है। वह सिर्फ सत्ता के गलियारों में चाटुकारिता के दम पर अपनी कुर्सियां बचाने में ही लगी हुई है।
और अस्पताल के बारे में तो बात करना भी बेमानी है। कमलाराजा अस्पताल के स्टाफ को तो शायद पहले मानवीय मूल्यों की शिक्षा लेना चाहिए, जिन्हें लगता है कि ऐसे रेप तो रोज होते हैं। कमाल है साहब, शायद आपके लिए रेप और मामूली चोट में कोई अंतर नहीं होगा, लेकिन उस बच्ची से जाकर पूछिए एक बार जिसके साथ यह घिनौनी हरकत हुई है। अगर आपका कलेजा इस कदर पत्थर का हो चुका है तो फिर आपको अपने पेशे के बारे में दोबारा सोचना चाहिए। हद है कि डॉक्टर पार्टी मना रहे थे और फूल सी बच्ची घंटों अल्ट्रा साउंड के लिए इंतजार करती रही।
स्कूल प्रबंधन ने तो शिक्षा के पेशे को कलंकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। झूठ बोलते रहे कि हमारे यहां कोई मेल स्टाफ ही नहीं है। जो स्कूल बच्चों का भविष्य संवारने के दावे करता हो, वह यदि झूठ के सहारे है तो फिर कुछ कहने-सुनने को नहीं बचता।
अगर अब भी नहीं संभले तो फिर बदलाव की उम्मीद करना बेमानी है। आरोपी के साथ ही वे तमाम लोग भी उस बच्ची के गुनहगार हैं, जो आखिरी समय तक लीपापोती में जुटे थे। उन सब पर कार्रवाई होना ही चाहिए, ताकि अगली बार कोई इस तरह की घटनाओं को हल्के में लेने की जुर्रत ना कर सके।