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बापू के मुसलमान भक्त का हुआ दाह संस्कार, साबरमती आश्रम के अध्यक्ष थे कुरैशी

साबरमती आश्रम में पैदा हुए महात्मा गांधी के एक सच्चे भक्त अब्दुल हामिद कुरैशी की मौत के बाद उनके चाहत के अनुसार उन्हें दफनाया नहीं गया बल्कि दाह संस्कार किया गया।

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चूरू

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Abhishek Pareek

Oct 10, 2016

साबरमती आश्रम में पैदा हुए महात्मा गांधी के एक सच्चे भक्त अब्दुल हामिद कुरैशी की मौत के बाद उनके चाहत के अनुसार उन्हें दफनाया नहीं गया बल्कि दाह संस्कार किया गया। राष्ट्रपिता कहा करते थे, मेरा जीवन एक संदेश है। कुरैशी भी अपनी मौत के साथ यही संदेश दे गए।

साबरमती आश्रम के अध्यक्ष थे कुरैशी

कुरैशी उस साबरमती आश्रम के अध्यक्ष थे, जहां अंग्रेजों से आजादी दिलाने के लिए बापू विचार किया करते थे। इसके अलावा कुरैशी एक प्रसिद्ध वकील भी थे। कुरैशी ने शनिवार सुबह नवरंगपुरा स्थित स्वास्तिक सोसायटी में अपने नाश्ते की टेबल पर आंखरी सांसें लीं।

अफ्रीका में बापू के मित्र रहे बावाजिर के पोते थे कुरैशी

कुरैशी को अंतिम संस्कार के लिए मुक्ति धाम श्मशान घाट ले जाया गया तो उनका पूरा परिवार वहां पहुंचा। दुख में डूबे परिवार के साथ वहां देश की न्याय व्यवस्था से जुड़े कई वरिष्ठ भी नजर आए। कुरैशी इमाम साहब अब्दुल कादिर बावाजिर के पोते थे, जो दक्षिण अफ्रीका में बापू के निकट मित्र थे। बापू इमाम बावाजिर को सहोदर कहा करते थे, जिसका अर्थ होता है एक ही मां से पैदा हुआ भाई।


चार वर्षों से याद दिलाते थेः दाह संस्कार करना मेरा

कुरैशी के भाई वाहिद कुरैशी के दामाद भारत नाइक ने बताया कि कुरैशी साहब अपना दाह-संस्कार इसलिए चाहते थे क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि उन्हें दफनाकर जमीन का टुकड़ा बर्बाद किया जाए। भारत नाइक ने बताया कि दरअसल परिवार के अन्य सदस्यों के सामने ऐसे फैसले का उन्होंने मुझे गवाह बनाया। वह पिछले 4 वर्षों से अपने बेटे जस्टिस अकिल कुरैशी और नाइक को बार-बार याद दिलाते रहे कि उनका दाह-संस्कार ही किया जाए, उन्हें दफनाया न जाए; अगर कोई इसपर सवाल उठाता है तो ऐसा कहा जाए कि यही उनकी अंतिम इच्छा थी। कुरैशी का दाह-संस्कार शनिवार को शाम 7 बजे के बाद किया गया।


गांधी के देखरेख में बड़े हुए थे कुरैशी

साबरमती आश्रम में पैदा हुए कुरैशी बापू की गोद में खेलकर बड़े हुए थे। कुरैशी उन छोटे बच्चों में से थे जो बापू के लंच से टमाटर के स्लाइस खाया करते थे। बापू ने कुरैशी को कई खत भी लिखे थे, जिन्हें बाद में नैशनल आर्काइव्स ऑफ इंडिया के सुपुर्द कर दिया गया था। दक्षिण अफ्रीका से आने के बाद इमाम बावाजिर बापू के साथ 1915 में साबरमती आश्रम आकर बसे थे।

(पत्रिका डाॅट काॅम से साभार)

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