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अलवर की इस गली का होली से रहा है विशेष नाता, मुसलमानों की वजह से मनती थी हिन्दूओं की होली #KhulkeKheloHoli

अलवर की यह गली होली के लिए बेहद ही प्रसिद्ध है। यहां मुसलमान रंग बनाने का काम करते थे।

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अलवर

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Prem Pathak

Feb 24, 2018

this street of alwar had a big connection with holi #KhulkeKheloHoli

होली का त्योहार रंग और गुलाल का है। लेकिन अलवर में कुछ और भी है जिसका होली से बहुत खास रिश्ता है। जब भी अलवर में होली खेलने की बात आती है तो सबसे पहले याद आती है रंगभरियों की गली। यह वह गली हैं जिसमें किसी जमाने में होली खेलने के लिए गुलाब गोटे बनते थे। इसलिए इस गली का नाम रंगभरियों की गली पड़ गया। गुलाल गोटे को फेंककर मारा जाता था तो रंग और गुलाल सामने वाले पर लगती थी, इसके लगते ही हर तरफ रंग बिरंगा नजारा बन जाता था।

समय के साथ होली खेलने के तरीके भी बदल गए हैं लेकिन होली के नाम पर रखे गए गली मोहल्लों की पहचान अब भी कायम है। आज भले ही गुलाल गोटे से होली नहीं खेली जाती हो लेकिन राजकाल में रंगभरियों की गली में खेली जाने वाली गुलाल गोटे की होली आज भी यहां के लोगों को बहुत याद आती है। हिन्दूओं का यह त्योहार मुसलमानों की वजह से मनता था। उस समय में रंग मुसलमान ही बनाते थे। रंग बनाने के बाद वे हिंदूओं को बेच देते थे। वहीं दोनों समुदाय के लोग मिलकर इस त्योहार को मनाते थे। दोनों समुदाय मिलकर होली पर रंग उड़ाया करते थे।

ऐसे तैयार होते थे गुलाल गोटे

लाख की चपड़ी को कूटकर उसे नरम बनाया जाता था। उसे गोल रखा जाता था अंदर से पोली होती थी। इसके अंदर रंग भरे जाते थे। उसे फूंक मारकर फुलाया जाता था। गुलाल गोटे के बाहर आटे की लोई बनाकर उसकी लेप लगाई जाती थी।

आज भी होता है लाख का काम

बजाजा बाजार से जगन्नाथ मंदिर के बीच में स्थित रंगभरियों की गली की पहचान आज भी कम नहीं है। आज भी यहां पर लाख का काम होता है। यहां पर विभिन्न समाजों के परिवार आज भी लाख के काम से जुड़े हुए हैं।

में बचपन से ही इस गली में रह रहा हूं। हमारे बुजुर्ग बताते हैं कि सबसे पहले बुंदु खां कारीगर थे जो कि अलवर में गुलाल गोटे बनाने का काम करते थे। इसके बाद कल्याण दत्त जी ने गुलाल गोटे बनाने का काम किया। इसके बाद दीन मोहम्मद ने इस काम को विशेष पहचान दी।
विद्याभूषण अरोडा, स्थानीय विक्रेता

राजकाल में गुलाल गोटे कम लागत में अधिक मुनाफे का सौदा था। मेरे पिता गुलाल गोटे बनाने का काम करते थे। गुलाल गोटे बनाना बहुत सस्ता सौदा था इसलिए हर कोई इसी से होली खेलता था। गुलाल गोटे बनाने में थोड़ी सी गुलाल, थोड़ी सी लाख, थोड़ी सी कलाकारी और एक हल्की सी फूंक की जरूरत होती है।
रजिया बेगम, स्थानीय निवासी

किसी जमाने में रंगभरियों की गली का बहुत नाम था। होली के आते ही यहां पर हर तरफ रौनक छा जाती थी, गुलाल गोटे तैयार करने वाले कारीगरों को समय ही नहीं मिलता था। महाराजा जयसिंह स्वयं यहां से गुलाल गोटे लेकर जाते थे।
सतीश कुमार शर्मा, स्थानीय निवासी