बीते 20 साल में कम हुए मिट्टी के बर्तन बनाने वाले परिवार
दिनों-दिन बढ़ते बिजली के दामों एवं महंगाई के कारण कई कुंभकार परिवारों ने अब पुश्तैनी काम से दूरी बना ली है। दिनभर की कड़ी मेहनत के बावजूद परिवार के भरण पोषण के लिए पर्याप्त कमाई नहीं होने से यह कुंभकार परिवार अपने पारंपरिक कार्य से किनारा कर रहे हैं। जहां 20 साल पहले किशनगढ़ में 40 परिवार मिट्टी से बर्तन, दीपक एवं मटकियां बनाते थे वहीं अब सिमटकर मात्र 5 परिवार रह गए हैं।
नयाशहर हाथी खान के पास निवासी शिवकुमार प्रजापत ने बताया कि जहां 20 साल पहले कुम्हार समाज के करीब 40 परिवार मिट्टी के बर्तन, दीपक, मटकियां, सिकोरे आदि का काम करते थे। यह काम कुम्हार समाज का पुश्तैनी काम था, लेकिन दिनों-दिन बढ़ती महंगाई, बिजली के बढ़ते दाम के चलते मिट्टी से बनने वाली वस्तुओं में लागत भी बढने लगी। दिनभर की कठोर मेहनत के बावजूद परिवारों के समक्ष भरण पोषण की समस्या बनने से परेशान कुम्हार परिवारों के लोग अन्य काम धंधे तलाशने शुरू कर दिए और धीरे-धीरे दूसरे काम करने लगे। यही वजह है कि वर्तमान समय में कुम्हार परिवार के मात्र 5 परिवार ही श्तैनी काम कर रहे हैं।
शिव कुमार ने बताया कि बढ़ती महंगाई के कारण कुम्हार परिवार का पुश्तैनी काम में रुझान कम होने लगा और धीरे-धीरे समाज के कई परिवार के सदस्य हलवाई का काम करने लगे तो कुछ ने मार्बल एरिया में मजदूरी शुरू कर दी। युवा पीढ़ी की तो इस मिट्टी के कार्य में बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं है और वह पढ़ लिखकर नौकरी या अन्य उद्योग आदि में रुचि लेने लगे हैं। उन्होंने बताया कि मिट्टी की ट्रॉली की कीमत ही 2000 रुपए तक पहुंच गई है। फिर बिजली का बिल भी अधिक आता है। ऐसे में इस काम से घर खर्च चलना भी मुश्किल हो गया है। कई बार तो इस काम से मजदूरी भी पूरी नहीं निकल पाती है।
उन्होंने बताया कि दिसम्बर से ही उन्होंने परिवार के सदस्यों के साथ मटकियां बनाना शुरू कर दिया। दिसम्बर से फरवरी के अंतिम दिनों तक करीब 3000 से 3500 मटकियां स्टॉक में बना लीं। इस बार गर्मी की शुरुआत में मटकियों की बिकी की भी अच्छी शुरुआत हुई है। इस बार सीजन अच्छा रहने की उम्मीद है। परिवार के सदस्यों ने दोबारा मटकियां बनानी शुरू कर दी हैं और इस बार जून व जुलाई तक मटकियों की काफी अच्छी बिक्री की उम्मीद की जा रही है।
उन्होंने बताया कि सर्दी के सीजन में ही मटकियों का स्टॉक तैयार कर लिया जाता है। इस स्टॉक को होलसेल दरों के अनुरूप (50 से 60 रुपए प्रति नग) दुकानदारों आदि को बिक्री की जाती है। पूरे परिवार के करीब 5 से 6 जने इस काम में लगे रहते हैं। पहले काली मिट्टी से मटकी तैयार होती है। फिर परिवार की महिलाएं या बच्चे तैयार कच्ची मटकियों पर कलर आदि करते हैं।
इसके बाद सभी तैयार मटकियों को एक साथ आग के ढेर में सेका (पकाया) जाता है। उन्होंने बताया कि एक मटकी पर मिट्टी एवं ईंधन खर्च करीब 25 से 30 रुपए आता है। जबकि एक मटकी 50 से 60 रुपए में होलसेल में बिक्री होती है। सेकने के दौरान भी कई मटकियां टूट कर खराब भी हो जाती हैं। इस वजह से उन्हें मेहनत के अनुरूप पूरा दाम नहीं मिल पाता है। उन्होंने बताया कि कुम्हार समाज के इस पुश्तैनी काम को सरकारी प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए, ताकि मिट्टी से मटकियां बनाने वाला कारीगर एवं यह पारंपरिक कला भी जीवित रह सके।