केवल पत्रिका में पढि़ए पद्मश्री जैन आचार्य विजय नित्यानंद सूरीश्वर से विशेष बातचीत उन्होंने कहा कि वे भले ही जैन आचार्य हैं, फिर भी जन-जन के हैं। यह चातुर्मास केवल जैन समाज का न होकर सम्पूर्ण नागौर का है और मेरी इच्छा भी है कि चार महीने तक सत्संग का लाभ पूरे नागौरवासी लें
नागौर. 31 वर्ष बाद एक बार फिर नागौर में चातुर्मास करने आए जैन आचार्य विजय नित्यानंद सूरीश्वर ने कहा कि नागौर के जन-जन से उनका दिल का रिश्ता है, जो पिछले 31 साल से जुड़ा हुआ है। इसलिए जब-जब मैं नागौर आता हूं तो जैन समाज के साथ अन्य समाज के लोगों से भी मेरा मिलना होता है। यहां की जनता ने मुझे बहुत प्यार दिया है। उन्होंने कहा कि वे भले ही जैन आचार्य हैं, फिर भी जन-जन के हैं। यह चातुर्मास केवल जैन समाज का न होकर सम्पूर्ण नागौर का है और मेरी इच्छा भी है कि चार महीने तक सत्संग का लाभ पूरे नागौरवासी लें। जैन आचार्य ने पत्रिका से खास बातचीत करते हुए कहा कि वे नागौर की आम जनता के लिए जो-जो जरूरतें होंगी, उनके लिए वे अवश्य सहयोग दिलाएंगे। मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं है। नर की सेवा ही नारायण की सेवा है। इसलिए हम चाहेंगे कि नागौर के लिए कुछ अच्छा काम करें। पेश है बातचीत के प्रमुख अंश-
प्रश्न : आचार्य जी, आपके जीवन और जैन धर्म में आपकी भूमिका के बारे में थोड़ा बताएं।
जवाब : जैन धर्म से जुडकऱ हमने यह संयम जीवन स्वीकार किया है। 58 वर्ष के साधना काल में मैंने लगभग 2 लाख किलोमीटर की पदयात्रा देशभर में की है। इस दौरान हमने लोक कल्याण एवं जीव दया के कई कार्य करवाए। शिक्षा व चिकित्सा के क्षेत्र में काफी काम करवाया है और यही हमारा जीवन का उद्देश्य है।
प्रश्न : जैन धर्म के मूल सिद्धांत क्या हैं और वे हमारे जीवन में कैसे लागू हो सकते हैं?
जवाब : जैन धर्म के मूल सिद्धांत वैसे तो पंच व्रत हैं, लेकिन मुख्य रूप से भगवान महावीर ने जो संदेश दिया है, उसमें अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह है। विचार में यदि अनेकांत को, आचार में यदि अहिंसा को और व्यवहार में अपरिग्रह को अपना लें तो न केवल खुद की, न केवल परिवार की, न केवल समाज की बल्कि पूरे विश्व की समस्याओं का समाधान हो सकता है। यह सबके लिए लागू होता है।
प्रश्न : आप जैन धर्म में अहिंसा के महत्व को कैसे देखते हैं और यह हमारे दैनिक जीवन में कैसे लागू हो सकता है?
जवाब : अहिंसा का वर्णन केवल जैन धर्म में आता है। जीव मात्र की चिंता करना, चाहे वो कितना ही सूक्ष्म क्यों न हो, चाहे वो दिखाई भी न दे। उसकी हिंसा न हो, उसको किसी प्रकार का कष्ट न हो, इसका जैन धर्म में विशेष ध्यान रखा जाता है। अहिंसा जैन धर्म का प्राण है।
प्रश्न : जैन धर्म में आत्म-संयम और आत्म-नियंत्रण का क्या महत्व है और यह कैसे प्राप्त किया जा सकता है?
जवाब : जैन धर्म में संयम-साधना और अपरिग्रह का विशेष महत्व है। संयम और सदाकार तो जीवन के आभूषण हैं। इनके बिना व्यक्ति का जीवन निर्माण नहीं हो सकता। इनसे आत्मा का उत्थान कर सकते हैं।
प्रश्न : आप वर्तमान समय में जैन धर्म की चुनौतियों और अवसरों को कैसे देखते हैं?
जवाब : हर धर्म में चुनौतियां आती हैं, लेकिन जैन धर्म के संत-महात्मा समय-समय पर अपनी प्रेरणाएं देकर समाधान करते हैं। उपदेश के माध्यम से सही दिशा देते हैं, जिससे हर प्रकार की समस्याओं का समाधान हो सके।
प्रश्न : आप युवाओं को जैन धर्म के बारे में जागरूक करने और उन्हें इसके मूल सिद्धांतों को अपनाने के लिए कैसे प्रेरित करेंगे?
जवाब : हम युवाओं के साथ बच्चों को महिलाओं को व अन्य को प्रेरणा देने का काम करते हैं। आयु के अनुसार व्यक्ति को नियम एवं बातें बता करके उन्हें सही रास्ते पर चलने की प्रेरणा देते हैं। इससे हजारों युवा संत बने हैं। बच्चों व महिलाओं को भी संस्कार देते हैं।
प्रश्न : जैन धर्म और अन्य धर्मों के बीच संवाद और समझ को बढ़ावा देने के लिए आप क्या सुझाव देंगे?
जवाब : सभी धर्म वंदनीय हैं, पूजनीय हैं, आदरणी हैं। सभी धर्म एक ही मंजिल के रास्ते बताने वाले हैं। सभी के मार्ग अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन अंतिम लक्ष्य सबका एक है। सभी धर्म सद् मार्ग दिखाते हैं, चरित्र निर्माण की बात करते हैं, सभी सत्य, संयम, सेवा, सदाचार व सद्भावना का प्रचार करते हैं।