Supreme Court rules on sub-classification : उच्चतम न्यायालय ने आरक्षण के इस फैसले के साथ ही राज्यों को एससी-एसटी वर्गों में सब कैटेगरी बनाने का अधिकार मिल गया है। संविधान पीठ ने 6:1 के बहुमत से यह सुनाया है। उच्चतम न्यायालय ने 20 साल पुराने अपने ही फैसले को पलट दिया है।
Supreme Court rules on sub-classification : सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को अहम फैसले में कहा कि आरक्षित श्रेणी समूहों (एससी/एसटी) को आरक्षण का लाभ देने के लिए राज्य उनके पारस्परिक पिछड़ेपन के आधार पर विभिन्न समूहों में उप-वर्गीकृत कर सकते हैं। यानी एससी-एसटी को सब कैटिगरी में आरक्षण दिया जा सकता है। शीर्ष कोर्ट ने कहा कि हाशिए पर जा चुके पिछड़े लोगों को अलग से कोटा देने के लिए इस तरह का उप-वर्गीकरण जायज है। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने 2004 के अपने उस फैसले को पलट दिया, जिसमें कहा गया था कि एससी-एसटी के आरक्षण के लिए सब कैटिगरी नहीं बनाई जा सकती।
संविधान में अनुसूचित जातियों के लिए 15 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था है। इस कोटे में कई राज्यों ने सब-कोटा जोड़ा दिया था। इसको लेकर सुप्रीम कोर्ट में 23 याचिकाएं दायर की गई थीं। इन पर सीजेआइ डी.वाई. चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली सात जजों की संविधान पीठ ने 6:1 के बहुमत से फैसला सुनाया। जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी ने बहुमत से असहमति जताते हुए कहा कि इस तरह का उप-वर्गीकरण मंजूर नहीं है।
फैसला पढ़ते हुए सीजेआइ ने कहा कि अनुसूचित जातियों की पहचान के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले मानदंड से पता चलता है कि वर्गों के भीतर विविधता है। अनुच्छेद 15, 16 में ऐसा कुछ नहीं है, जो राज्यों को किसी जाति को उप-वर्गीकृत करने से रोकता हो। हालांकि उप वर्गीकरण का आधार मात्रात्मक और प्रदर्शन योग्य आंकड़ों से उचित ठहराया जाना चाहिए। संविधान पीठ ने मामले पर सुनवाई के बाद आठ फरवरी को फैसला सुरक्षित रख लिया था। पीठ के दूसरे जजों में जस्टिस बी.आर. गवई, विक्रम नाथ, पंकज मिथल, मनोज मिश्रा और सतीश चंद्र शर्मा शामिल थे।
जस्टिस बी.आर. गवई ने फैसले में कहा कि राज्यों को एससी-एसटी में क्रीमीलेयर की पहचान करनी चाहिए। इन वर्गों के लिए भी क्रीमीलेयर की व्यवस्था होनी चाहिए। आरक्षण का फायदा पा चुके लोगों को इससे बाहर कर वंचितों को मौका दिया जाना चाहिए। अनुसूचित जाति समुदाय से आने वाले जस्टिस गवई ने कहा, राज्यों को एससी-एसटी से क्रीमीलेयर की पहचान के लिए नीति बनानी चाहिए। जस्टिस विक्रम नाथ ने जस्टिस गवई से सहमति जताते हुए कहा, क्रीमीलेयर को बाहर करने के मानदंड ओबीसी पर लागू मानदंडों से अलग हो सकते हैं। जस्टिस पंकज मिथल और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा ने कहा कि अगर परिवार में किसी भी पीढ़ी ने आरक्षण का लाभ उठाकर उच्च दर्जा प्राप्त किया है तो यह लाभ तार्किक रूप से दूसरी पीढ़ी के लिए नहीं बनता।
जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी का फैसला अलग रहा। उन्होंने कहा कि जब जाति के आधार पर ही एससी-एसी कोटा मिलता है तो उसमें बंटवारा करने की जरूरत नहीं है। कार्यपालिका या विधायी शक्ति के अभाव में राज्य एससी-एसटी के सभी लोगों के लिए आरक्षित लाभों को उप-वर्गीकृत नहीं कर सकते। उप-वर्गीकरण अनुच्छेद 341(2) के तहत राष्ट्रपति की अधिसूचना के साथ छेड़छाड़ के समान होगा।
यह फैसला विभिन्न राज्यों में दलित समाज की उन जातियों को फायदा पहुंचाएगा, जिनका प्रतिनिधित्व अपेक्षाकृत कम है। मसलन उत्तर प्रदेश में जाटव और बिहार में पासवान की दशा दलित समाज की अन्य जातियों के मुकाबले अच्छी है। ऐसे में मुसहर, वाल्मीकि, धोबी जैसी बिरादरियों के लिए अलग से सब-कोटा फायदा पहुंचा सकता है। इसी तरह पंजाब, हरियाणा जैसे राज्यों में दलित कोटे में भी वर्गीकरण से हरेक जाति तक आरक्षण का लाभ पहुंचने की राह खुलेगी।