वैश्विक आतंकी साजिशों में आया यह बदलाव अब भारत में भी आजमाया जाने लगा है।
राजधानी दिल्ली में लाल किले के पास हुए आतंकी धमाके (10/11) के तार जहां तक पहुंच रहे हैं वे इस अवधारणा को तोड़ने वाले हैं कि आर्थिक-सामाजिक रूप से हाशिए पर पहुंचे लोगों को धार्मिक कट्टरता का पाठ आसानी से पढ़ाया जा सकता है। इस धमाके में जांच एजेंसियों ने जो नाम उजागर किए हैं, उनमें विश्वविद्यालयों में पढ़ने-पढ़ाने वाले, टेक्नोलॉजी और सोशल नेटवर्किंग की गहरी समझ रखने वाले हैं। इसीलिए इन्हें 'सफेदपोश आतंकी तंत्र' (वाइट कॉलर टेरर इकोसिस्टम) के रूप में परिभाषित किया जा रहा है। पहले भी दुनियाभर में ऐसे मामले सामने आए हैं, जहां आतंकी संगठनों को बौद्धिक या तकनीकी सहायता देने के बाद उच्च शिक्षित युवा खुद भी आतंकी हरकतों को अंजाम देने लगे। हमारे लिए चिंता की बात है कि वैश्विक आतंकी साजिशों में आया यह बदलाव अब भारत में भी आजमाया जाने लगा है।
वैश्विक आतंकी नेटवर्क में लीडरशिप पोजिशन पर उच्च शिक्षा प्राप्त पहले भी रहे हैं। आतंकी संगठन अलकायदा का संस्थापक अल जवाहिरी मेडिकल सर्जन था और इस्लामी बुद्धिजीवी के रूप में उसकी पहचान थी। ओसामा बिन लादेन के पास भी इंजीनियरिंग की डिग्री थी। आइएसआइएस के पूर्व सरगना अबू-बक्र बगदादी ने भी ए. स्टॉलर के रूप में अपनी धाक जमा रखी थी। हालांकि उच्च शिक्षा हासिल करने के बावजूद ये सभी प्रेम, संवेदना, संवाद, सहिष्णुता और विवेक के बुनियादी पाठ पढ़ने से वंचित रहे। अलकायदा और आइएसआइएस जैसे संगठनों ने तो डॉक्टर और इंजीनियर जैसे पेशेवरों की अपने संगठन में भर्ती के लिए विशेष अभियान चला रखा था। हालांकि भारतीय युवाओं को व्यापक रूप से आकर्षित करने में वे नाकाम ही रहे थे। तकनीकी प्रगति ने उनका काम आसान कर दिया है। शिक्षित युवा भी नफरत, कट्टरता की राह चुन रहे हैं तो अहम सवाल यह है कि हमारी शिक्षा प्रणाली ने उन्हें मानवीयता, विवेक और सह-अस्तित्व की कितनी शिक्षा दी? तकनीकी दक्षता तो मिल गई, पर नैतिक समझ नहीं। यह असंतुलन बड़ा खतरा बन चुका है।
इंटरनेट पर एन्क्रिप्टेड संवाद और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का यह नया दौर आतंकी समूहों के लिए मुफीद साबित हो रहा है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और डार्क वेब के संयोजन ने आतंकी संगठनों को नई ताकत दे दी है। कट्टरपंथी ताकतें डिजिटल माध्यमों से ब्रेनवाशिंग और भर्ती का काम बिना भौतिक संपर्क के कर रही हैं। आतंकी अब किसी गुफा या सीमा पार प्रशिक्षण शिविर से ही नहीं, लैपटॉप व स्मार्टफोन से भी संचालित हो रहे हैं। यह सुरक्षा एजेंसियों के लिए भी नई चुनौती है। सीमाओं पर निगरानी या भौतिक नेटवर्क तोड़ना ही काफी नहीं, साइबर फॉरेंसिक्स, डिजिटल इंटेलिजेंस और डार्कनेट ट्रैकिंग को अधिक सशक्त बनाना होगा। विश्वविद्यालयों, टेक्नोलॉजी संस्थानों और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को भी इस खतरे के प्रति जागरूक रहना होगा।