भारत में सामान्य नियामक कर्मचारी न तो सशक्त हैं, न सुरक्षित। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे उन गहरी राजनीतिक और प्रशासनिक प्रभाव की पहुंच वाले विशाल कारोबारी समूहों को नियंत्रित करें, जिनका वार्षिक लाभ पूरे नियामक संस्थान के बजट से भी अधिक है।
डॉ. अजीत रानाडे, वरिष्ठ अर्थशास्त्री (द बिलियन प्रेस)
इस महीने जब इंडिगो ने अचानक हजारों उड़ानें रद्द कर दीं तो लाखों लोग हवाई अड्डों पर फंस गए और उनकी यात्राएं बाधित हो गईं, तब यह साफ दिख गया कि एक ही बड़ी एयरलाइन पर निर्भरता का जोखिम कितना खतरनाक हो सकता है। ऐसे में सबसे आसान तरीके से दोष सिर्फ इंडिगो पर डाल दिया गया, लेकिन सतह के नीचे छिपी वास्तविकता अधिक गहरी और चिंताजनक है। भारत की नियामक संस्थाएं सालों से कमजोर होती जा रही हैं और ऐसा दूषित पूंजीवाद विकसित हो गया है, जिसमें निजी संस्थान लगभग निरंकुश होकर संचालित होते हैं और उन्हें जवाबदेह ठहराना लगभग असंभव है। इसलिए यह संकट कोई अप्रत्याशित गलती नहीं, सुनिश्चित परिघटना थी। यह नाकाम सिस्टम का नतीजा था।
भारतीय नियामकों की संरचना सैद्धांतिक रूप में अर्ध-न्यायिक संस्थाओं की तरह बनाई गई थी- स्वतंत्र, फैसले साक्ष्यों के आधार पर लेने वाले और किसी भी कॉर्पोरेट दिग्गज को जवाबदेह बना सकने में क्षमतावान। परंतु व्यवहार में ये संस्थाएं मंत्रालयों के अधीन विभागों में बदल गईं, जहां ऐसे कनिष्ठ अधिकारी तैनात हैं जिनके पास अरबों डॉलर की कंपनियों को नियंत्रित करने का अधिकार, प्रशिक्षण और आत्मविश्वास तक नहीं है। भारत में सामान्य नियामक कर्मचारी न तो सशक्त हैं, न सुरक्षित। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे उन गहरी राजनीतिक और प्रशासनिक प्रभाव की पहुंच वाले विशाल कारोबारी समूहों को नियंत्रित करें, जिनका वार्षिक लाभ पूरे नियामक संस्थान के बजट से भी अधिक है। वर्तमान इंडिगो संकट से पहले भी ऐसे उदाहरण मौजूद हैं। दूरसंचार क्षेत्र को ही ले लीजिए, जो धीरे-धीरे लगभग एकाधिकार की ओर बढ़ रहा है। पिछले बीस वर्षों में हर बार स्पेक्ट्रम नीलामी के बाद नियम बदले गए। नीतियां पारदर्शी तरीके से नहीं बनीं, वे लगातार संकट प्रबंधन और लॉबिंग के दबाव में बदलती रहीं। कंपनियों ने यह सीख लिया कि वास्तविक खेल व्यावसायिक दक्षता नहीं, नियम बदलवाने की क्षमता है। कंपनियों को भरोसा था कि बाद में नियम बदले जा सकते हैं, क्योंकि ऐसा बार-बार होता आया था। यह कानून के शासन के बिल्कुल उलट है।
यही स्थिति हवाईअड्डा पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप क्षेत्र में भी दिखती है। नीति आयोग-क्रिसिल की रिपोर्ट बताती है कि भारत को अगले दशक में लगभग पचास अरब डॉलर का निवेश आवश्यक है, लेकिन मनमाने नियमों, अस्पष्ट शुल्क-निर्धारण, मंजूरी में देरी और लंबी कानूनी लड़ाइयों के कारण विदेशी निवेशक पीछे हट रहे हैं। अस्पष्ट समझौते और बड़े कॉर्पोरेट ऑपरेटरों का राजनीतिक प्रभाव नियमन को पंगु बना देता है। जब नियामक कमजोर होते हैं, तो कंपनियां असली नीति निर्माता बन जाती हैं। इंडिगो की गड़बड़ी की जड़ें 2019 में हैं, जब पायलट यूनियन ने थकान से जुड़े नियमों और रोस्टर के मानकों के खिलाफ अदालत में याचिका दायर की। लंबी कानूनी लड़ाई के बाद नागरिक उड्डयन महानिदेशालय को कड़े फ्लाइट ड्यूटी टाइम लिमिटेशन नियम लागू करने पड़े। विडंबना यह है कि ये सुधार पांच साल की देरी से उस समय लागू हुए, जब स्टाफ की भारी कमी थी और इंडिगो ने इसे पहले से संभालने की कोशिश ही नहीं की।
विमानन क्षेत्र में सुरक्षा सर्वोपरि है, पर इंडिगो ने आवश्यक अनुपालन को टाला- स्टाफिंग की वास्तविक स्थिति छिपाई, शेड्यूल नियंत्रित करने में देर की और उड्डयन महानिदेशालय के भीतर असमानता का लाभ उठाया। महानिदेशालय को ये कमियां अंदरूनी रूप से पता चलीं, लेकिन उसके कनिष्ठ अधिकारियों में बात ऊपर तक ले जाने का साहस व सामथ्र्य नहीं था। भारत की विकास कहानी में पूंजी संगठित और शक्तिशाली हो गई है, जबकि श्रम कमजोर और बिखरा हुआ। इंडिगो का मुद्दा सिर्फ विमानन का नहीं, बल्कि भारत की आर्थिक प्रशासन क्षमता की परीक्षा है। एक मजबूत तंत्र में एयरलाइनों की स्टाफ उपलब्धता समय रहते उजागर होती है अति-निर्धारित शेड्यूल पर दंड लगता है। पर हुआ उलट- यात्रियों ने कीमत चुकाई, कंपनियों ने जिम्मेदारी टाली और नियामक नुकसान के बाद जागे। भारत में नियमों की कमी नहीं, जरूरत नियामक व्यवस्था की रीढ़ मजबूत करने की है। इसके लिए जरूरी है- नियामक को निश्चित कार्यकाल, स्वतंत्र बजट और स्थिर नेतृत्व के साथ वास्तविक स्वायत्तता दी जाए, विषय-विशेषज्ञों की पेशेवर टीम बने, नियामकों को दंड और कानूनी सुरक्षा के अधिकार मिलें। सशक्त नियमन ही जनता के हितों की रक्षा कर सकता है।
इंडिगो का हालिया संकट, दूरसंचार नीतियों का अस्थिर इतिहास, हवाईअड्डा पीपीपी मॉडल की कमजोरी और शिक्षा नियामकों की असहायता यह दर्शाती है कि भारत की नियामक व्यवस्था इतनी मजबूत नहीं कि बड़े कॉर्पोरेट दिग्गजों पर लगाम लगा सके। जब तक नियामक संस्थाएं स्वतंत्रता, अधिकार और विश्वसनीयता हासिल नहीं करतीं, भारत निजी कंपनियों की मनमानी और सार्वजनिक बेबसी के बीच फंसा रहेगा। दोष 'दबंग कंपनियों' पर डाला जाता रहेगा, पर असली समस्या उस ढांचे में है जहां नियम ताकतवरों के लिए नरम और बाकी के लिए कठोर हैं। कानून का शासन मजबूत करना व्यापार-विरोधी नहीं, बल्कि न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक अर्थव्यवस्था का एकमात्र आधार है।