राजीव रंजन, एसोसिएट प्रोफेसर, चीनी अध्ययन, पूर्वी एशियाई अध्ययन विभाग, दिल्ली विवि
चीन ने तियानजियान में शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन (एससीओ) में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की द्विपक्षीय वार्ता में ‘सामरिक स्वायत्तता’ को रेखांकित किया गया है। उसमें यह साफ किया गया है कि उन्होंने किसी तीसरे देश के साथ संबंधों को गलत नजरिए से न देखा जाए। भारत ने इस शिखर सम्मेलन के जरिए दुनिया को संदेश दिया है कि वैश्विक राजनीति में नेशन फर्स्ट सबसे अहम है। स्मरण रहे कि 2020 गलवान के बाद मोदी और शी जिनपिंग की यह पहली मुलाकात नहीं है, इससे पहले उनकी 2023 ब्रिक्स सम्मेलन, जोहान्सबर्ग और 2024 ब्रिक्स सम्मेलन, पंजाब में मुलाकात और वार्ता हो चुकी है।
भारत-चीन संबंधों को लेकर कई सवाल उभरे हैं। क्या भारत-चीन रिश्तों में नया राग अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के अचानक रूखे रवैये का नतीजा है, जैसा कि दोनों देशों के मीडिया और अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ अध्ययन लगा रहे हैं। क्या वास्तव में भारत की चीन नीति अमेरिका के रूखे व्यवहार की राजनीतिक प्रतिक्रिया है? क्या यह यात्रा केवल प्रतिक्रिया है या 2020 के बाद चीन की ओर से भारत को साधने की कोशिशों का नतीजा है? नहीं तो, चीन सहयोग के लिए आगे क्यों आता? तात्पर्य यह है कि भारत और चीन संबंधों में नया आगाज ट्रंप के भारत पर आक्रमक टैरिफ के मामले तक सीमित नहीं है। वरन् दोनों देशों की द्विपक्षीय आवश्यकताओं, बदलती क्षेत्रीय भू-राजनीतिक परिस्थितियों और एससीओ व ब्रिक्स जैसे लघु समूहों की बाध्यता है। डोकलाम विवाद का समाधान भी ब्रिक्स शियामन 2017 से पहले देखने को मिला था। ट्रंप का भारत-रूस संबंध पर निशाना असल में भारत को अमेरिकी वस्तुओं पर आयात शुल्क लगाने का दबाव और ट्रंप की अति महत्वाकांक्षी नीति का परिणाम है। 2020 के गलवान घाटी की घटना के बाद से यह बात साफ थी कि भारत अपने व्यवहार में नरमी नहीं लाएगा। एस. जयशंकर ने इस बार इस बात को रेखांकित कर चुके थे। दोनों देशों के संबंध में गुणात्मक बदलाव लाने के लिए आवश्यकता थी कि सीमा विवाद पर सकारात्मक पहल हो।
तदनुसार दिसंबर 2024 में सीमा मामलों पर विशेष प्रतिनिधियों की 23वीं बैठकी बीजिंग में एवं 24वीं बैठकी गत सप्ताह दिल्ली में आयोजित हुई। गत सप्ताह हुई 24वीं बैठक के बाद जारी वक्तव्य में सीमा निर्धारण में ‘अगेती फसल’ लागू करने की आपसी रजामंदी दिखी है। वही मौजूदा तंत्रों को नवीनीकृत करने के अलावा, भारत-चीन सीमा मामलों पर परामर्श और समन्वय के लिए आवश्यक तंत्र (डब्ल्यूएमसीसी) के तहत दो विशेषज्ञ समूह स्थापित किए जाएंगे। जहां पहला समूह भारत-चीन सीमा क्षेत्रों में सीमा निर्धारण में ‘अगेती फसल’ पर काम करेगा, वहीं दूसरा समूह प्रभावी सीमा प्रबंधन को आगे बढ़ाने के लिए भारत-चीन सीमा क्षेत्रों में शांति और स्थिरता बनाए रखने पर जोर देगा।
अभी हाल में चीन की ओर से उर्वरकों, दुर्लभ मृदा खनिज और टनल बोरिंग मशीनों के निर्यात पर प्रतिबंध लगाया गया था, जिससे भारत की विकास गति प्रभावित हो सकती थी। वहीं, 2020 से ही भारत ने विदेशी प्रत्यक्ष निवेश में पड़ोसी देशों पर प्रतिबंध लगा रखा था, जिससे चीनी उद्योगों को भारत के बड़े बाजार का लाभ नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए शांतिपूर्ण सीमा के साथ-साथ व्यापार एवं निवेश अति आवश्यक है। विशेष प्रतिनिधियों के बयान में भारत की चिंता को रेखांकित किया गया है कि तिब्बत में ब्रह्मपुत्र नदी पर चीनी बांध और ट्रांस-बॉर्डर नदियों पर विशेषज्ञ स्तर के तंत्र की भूमि का स्वीकार किया गया है। हालाँकि सामरिक दृष्टि से तीनों तटीय देशों—चीन, भारत और बांग्लादेश—को ब्रह्मपुत्र नदी जल आयोग का गठन करना चाहिए। उधर अब सरहद पर सैनिक गतिरोध के बजाय, तीन निर्धारित व्यापारिक मार्गों अर्थात लिपुलेख दर्रा, शिपकी ला (दर्रा) और नाथु ला (दर्रा) के माध्यम से सीमा व्यापार को फिर से खोलना आशाजनक है, परंतु अब इस व्यवस्था को भारत-चीन के अन्य सीमावर्ती क्षेत्रों में भी अपनाया जाना चाहिए।
यह अध्ययन यह स्पष्ट करता है कि व्यापार होने से सीमापार घुसपैठ के मामलों में स्वाभाविक रूप से कमी आती है। लद्दाख 2025 विजन में प्राचीन व्यापार मार्गों को फिर से खोलने की परिकल्पना भी की गई है। क्षेत्रीय स्तर पर अगर देखें तो ऑपरेशन सिंदूर के बाद, दक्षिण एशिया में भू-राजनीति बदल रही है। पाकिस्तान-अमेरिका संबंधों में फिर से ट्रंप के व्यापार हितों के कारण सुगबुगाहट हो रही है। वाशिंगटन-इस्लामाबाद की नजदीकियां बीजिंग की चिंताएं भी बढ़ा रही हैं।
वहीं द्विपक्षीय वैमनस्यता के कारण लघु समूहों जैसे एससीओ व ब्रिक्स में बीजिंग और इस्लामाबाद को हावी होने के लिए जगह नहीं छोड़ी जा सकती। फलतः विश्व राजनीति में आमूलचूल बदलाव के मद्देनजर, स्वाभाविक है कि भारत भी अपनी विदेश नीति में बदलाव करे और नई भू-राजनीतिक वास्तविकताओं के अनुरूप अपनी प्राथमिकताएं तय करे। जैसा कि मोदी-शी की वार्ता से स्पष्ट है, भारत और चीन के बीच स्थिर संबंध और सहयोग न केवल दोनों देशों की वृद्धि और विकास के लिए, बल्कि 21वीं सदी के बहुध्रुवीय विश्व और बहुध्रुवीय एशिया के लिए भी आवश्यक है।