राज्य सरकारें यह अपेक्षा नहीं कर सकतीं कि संवैधानिक प्रमुख महज रबर-स्टाम्प की तरह काम करें।
सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने अपनी ही दो सदस्यीय पीठ के फैसले को पलटते हुए स्पष्ट कर दिया कि विधायिका से पारित प्रस्तावों पर समयबद्ध निर्णय के लिए राज्यपाल या राष्ट्रपति को बाध्य नहीं किया जा सकता। तमिलनाडु सरकार की याचिका पर पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले से यह संवैधानिक प्रश्न खड़ा हो गया था, जिसमें राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए विधेयकों पर निर्णय लेने की समय सीमा निर्धारित की गई थी। इस मामले में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने सुप्रीम कोर्ट से सलाह मांगी थी। सभी संदर्भों पर विचार करने के बाद प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने माना कि पूर्व का फैसला न्यायपालिका के दायरे से बाहर था और सर्वोच्च संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के सीमित विवेकाधीन अधिकारों में न्यायपालिका कटौती नहीं कर सकती है। हालांकि, संविधान पीठ दो सदस्यीय पीठ के फैसले के एक बिंदु से सहमत रही कि संवैधानिक प्रमुख भी अनिश्चितकाल के लिए विधेयक को रोककर नहीं रख सकते और ऐसा होने पर संबंधित पक्ष को अदालत जाने अधिकार है।
अब आगे का रास्ता केंद्र व राज्य सरकारों के लिए अधिक जिम्मेदारी का है। राज्य सरकारें यह अपेक्षा नहीं कर सकतीं कि संवैधानिक प्रमुख महज रबर-स्टाम्प की तरह काम करें। राष्ट्रपति व राज्यपालों की भूमिका संविधान में स्पष्ट रूप से 'विवेक और संतुलन' पर आधारित है। यह निर्णय शक्ति-विभाजन के सिद्धांत को मजबूती देता है। लोकतंत्र सिर्फ चुनाव से नहीं, बल्कि संस्थाओं के बीच सामंजस्य व स्पष्ट सीमाओं से चलता है। जब न्यायपालिका अपनी सीमाओं को पहचानती है और कार्यपालिका को उसके दायित्वों की याद दिलाती है, तब संविधान जीवंत रहता है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला उसी जीवंतता को पुष्ट करता है। इससे ऐसी संवैधानिक व्यवस्था को मजबूती मिलती है जिसमें कोई संस्था सर्वोच्च नहीं, पर सब मिलकर सर्वोच्च व्यवस्था को कायम रखती हैं।
यह फैसला ऐसे समय आया है जब कई राज्य सरकारें राज्यपालों के साथ टकराव की स्थितियों का अनुभव कर रही हैं। कई बार विधेयकों, विश्वविद्यालयों की नियुक्तियों या शासन से जुड़े निर्णयों पर राज्यपालों की लंबी चुप्पी या देरी को लेकर राजनीतिक और प्रशासनिक विवाद उभरते रहे हैं। संविधान पीठ ने समय सीमा घोषित न करके संवैधानिक प्रमुखों की स्वतंत्रता को बरकरार रखा, लेकिन 'अनिश्चितकाल न रखने' की टिप्पणी देकर लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को गतिरोध में फंसने से बचाने की कोशिश भी की है। यह संतुलन बहुत नाजुक, पर आवश्यक है। जनादेश से संचालित सरकारें भी यदि किसी 'चेक एंड बैलेंस' के बिना चलें, तो शक्ति के केंद्रीकरण का खतरा हमेशा बना रहता है। हालांकि, इन सबके बावजूद वह मूल प्रश्न अनुत्तरित ही रहा कि यदि संवैधानिक प्रमुख सुप्रीम कोर्ट की 'अनिश्चितकाल' वाली सलाह पर अमल नहीं करता तो किसी राज्य के समक्ष क्या रास्ता बचा रहेगा?