के.एस. तोमर, वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक एवं स्तंभकार
नेपाल इस समय बेहद नाजुक मोड़ पर खड़ा है। जनाक्रोश सड़कों पर फूट पड़ा है और लोकतंत्र की नींव हिलती नजर आ रही है। यह संकट केवल बल प्रयोग से नहीं सुलझेगा। इसके लिए जरूरी है कि राजनीतिक संवाद को प्राथमिकता दी जाए, भ्रष्टाचार के खिलाफ ठोस कदम उठाए जाएं, अर्थव्यवस्था में सुधार किए जाएं और डिजिटल स्वतंत्रता का सम्मान किया जाए।
हालांकि ‘गुप्त ताकतों’ के षड्यंत्रों की चर्चाएं जरूर हो रही हैं, लेकिन आंदोलन की जड़ें घरेलू असंतोष में ही नजर आती हैं। विदेशी शक्तियां इसका लाभ उठाने की कोशिश कर सकती हैं, पर इसकी बुनियादी वजह जनता की लंबे समय से उपेक्षित मांगें हैं। नए शासन के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह हिंसक और नेता-विहीन भीड़ के बीच से ऐसे प्रतिनिधियों की पहचान करे, जिनसे बातचीत शुरू कर स्थिति को सामान्य किया जा सके। सेना की तैनाती ने राज्य व्यवस्था को पूरी तरह ध्वस्त होने से बचाया, लेकिन दीर्घकालीन समाधान तो केवल राजनीतिक संवाद से ही निकलेगा। भारत और चीन दोनों इस संकट को गहरी नजर से देख रहे हैं। उनकी प्राथमिकता केवल स्थिरता बनाए रखना है, परिणाम को प्रभावित करना नहीं। यदि काठमांडू ने आंतरिक घावों को जल्द नहीं भरा, तो नेपाल बांग्लादेश जैसी अस्थिरता की राह पर फिसल सकता है। फिर भी, अपनी बहुलतावादी राजनीति और सशक्त नागरिक समाज की वजह से नेपाल के पास अब भी हालात को सुधारने का अवसर है, बशर्ते सुधारों को गंभीरता से लागू किया जाए।
नेपाल में सामान्य स्थिति बहाल करने के लिए चार प्रमुख स्तंभों पर आधारित रणनीति की जरूरत है – संवाद, भ्रष्टाचार पर प्रहार, आर्थिक नवीनीकरण और डिजिटल स्वतंत्रता का संरक्षण। सरकार, विपक्ष और आंदोलनकारियों के बीच संरचित बातचीत तुरंत शुरू होनी चाहिए। यह संवाद किसी तटस्थ मंच, जैसे नागरिक समाज की मध्यस्थता से संभव है। बातचीत को औपचारिकता तक सीमित नहीं रखा जा सकता, इसमें ठोस समयसीमा और लागू किए जा सकने वाले परिणाम तय हों।
भ्रष्टाचार नेपाल की राजनीति की सबसे घातक बीमारी है। जनता अब केवल वादों से संतुष्ट नहीं होगी। स्वतंत्र भ्रष्टाचार-निरोधक संस्थाओं को मजबूत करना, न्यायपालिका को निष्पक्ष बनाना और ई-गवर्नेंस को बढ़ावा देना जरूरी है। सभी दलों के भ्रष्ट नेताओं पर सख्त कार्रवाई जनता को संदेश देगी कि सुधार केवल नारा नहीं, बल्कि हकीकत है। लगभग हर वरिष्ठ नेता पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। कुशासन से असंतोष चरम पर है। असमानता, जलवायु संकट और आपदाओं ने युवाओं को बड़े पैमाने पर पलायन को मजबूर कर दिया है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, नेपाल की 82 प्रतिशत कार्यशक्ति असंगठित क्षेत्र में है, जो वैश्विक और क्षेत्रीय औसत से कहीं अधिक है। रोजगार सृजन, खासकर युवाओं के लिए सबसे अहम है। बुनियादी ढांचे, पर्यटन और जलविद्युत में निवेश से संभावनाएं खुल सकती हैं। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आकर्षित करने और नौकरशाही की जटिलताओं को कम करने के लिए सुधार आवश्यक हैं। महंगाई पर नियंत्रण और खाद्य सुरक्षा भी प्राथमिकता में शामिल हो।
सोशल मीडिया पर प्रतिबंध ने युवाओं और सत्ता के बीच गहरी खाई उजागर की है। डिजिटल प्लेटफॉर्म केवल अभिव्यक्ति का साधन नहीं, बल्कि छोटे कारोबार और नवाचार के लिए जीवनरेखा हैं। इन्हें बहाल करना और भविष्य में सुरक्षा देना जनता का विश्वास वापस पाने के लिए अनिवार्य है। दमन के बजाय सरकार को साइबर साक्षरता कार्यक्रम और ऐसी नीतियां अपनानी चाहिए जो अफवाहों को रोकें लेकिन स्वतंत्रता को न कुचलें।
नेपाल का यह संकट केवल एक फैसले से पैदा नहीं हुआ, भले ही सोशल मीडिया पर प्रतिबंध इसका तात्कालिक कारण था। 1990 में लोकतंत्र की बहाली और 2006 में राजशाही की समाप्ति ने जनता में उम्मीदें जगाई थीं, लेकिन रोजगार, पारदर्शिता और जवाबदेही में सरकारें नाकाम रहीं। भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और ठहरी हुई अर्थव्यवस्था ने लोगों को निराश कर दिया। युवाओं के लिए यह प्रतिबंध केवल डिजिटल स्वतंत्रता पर हमला नहीं था, बल्कि शासकों द्वारा विफलताओं को छिपाने की कोशिश भी प्रतीत हुआ।
आंदोलन मुख्यतः घरेलू शिकायतों से उपजा है। इसमें विश्वविद्यालय के छात्र, बेरोजगार स्नातक और शहरी युवा आगे रहे। यह किसी स्थापित राजनीतिक दल के नियंत्रण में नहीं, जिससे यह तेज और अप्रत्याशित बन गया। फिर भी, नेपाल की भौगोलिक स्थिति उसे बाहरी प्रभावों के लिए संवेदनशील बनाती है। भारत और चीन दोनों सतर्क हैं ताकि अस्थिरता उनकी सीमाओं या परियोजनाओं को प्रभावित न करे। विशेषज्ञों का कहना है कि मौजूदा आंदोलन की एक विशेषता यह है कि इसमें भारत विरोधी नारों की पूरी तरह अनुपस्थिति है।
नेपाल की सेना को हमेशा स्थिरता का प्रतीक माना गया है। उसकी तैनाती ने हालात काबू में किए, पर लंबे समय तक सुरक्षा बलों पर निर्भरता सेना की साख को भी खतरे में डाल सकती है। हिंसा को सीमित करना सेना कर सकती है, पर मूल समस्याओं का हल केवल राजनीतिक नेतृत्व के पास है।
विश्लेषकों ने नेपाल की स्थिति की तुलना बांग्लादेश से भी की है, लेकिन फर्क यह है कि नेपाल की राजनीति अधिक बहुलतावादी है और नागरिक संगठन सक्रिय हैं। यही विविधता सुधारों के लिए अवसर देती है।
यह आंदोलन केवल क्षणिक गुस्सा नहीं, बल्कि गहरे बदलाव की मांग है। सवाल यह है कि क्या नेपाल का नेतृत्व इस चुनौती को अवसर में बदल पाएगा या इतिहास में उस पीढ़ी के रूप में दर्ज होगा जिसने लोकतंत्र के वादे को व्यर्थ कर दिया।