द्रोण यादव, अमरीका बनाम अमरीका पुस्तक के लेखक
टैरिफ वॉर के चलते भारत अभी लगातार बदलती विश्व-व्यवस्था के केंद्र में है, जहां एक ओर भारत को रूस से साथ तेल व्यापार के कारण अमेरिकी टैरिफ का सामना करना पड़ रहा है, वहीं दूसरी ओर वह इन टैरिफ से होने वाले नुकसान से बचने के लिए रूस और चीन सहित अन्य देशों से अपने रिश्तों में संभावना खोज रहा है।
इस बीच भारत पर अत्यधिक दबाव डालने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने यूरोपीय देशों से भी यह अपील की है कि अमेरिका की तरह वे भी भारत पर 100% टैरिफ लागू करें। अमेरिका ने यूक्रेन से भी भारत पर लगे अमेरिकी टैरिफ का समर्थन करवाया है। वहीं, भारत एससीओ व ब्रिक्स गठबंधन की ताकत का प्रदर्शन कर रहा है। इस सबके चलते अब भी दोनों ही देशों ने समझौते के द्वार पूर्णत: बंद नहीं किए हैं। जहां एक ओर ट्रंप-मोदी की मजबूत दोस्ती का दावा करने वालों पर सवाल उठ रहे हैं, वहीं दूसरा पक्ष यह भी मानता है कि इनकी दोस्ती दोनों देशों के रिश्ते पुन: सुगम करने में मददगार हो सकती है।
पिछले दिनों एससीओ की बैठक के दौरान तीनों देशों के मुखिया (भारत-रूस-चीन) ट्रंप की नीतियों से त्रस्त एक नए गठबंधन की ओर इशारा करते देखे गए। उसके बाद न केवल ट्रंप ‘चीन के हाथों रूस और भारत को खो देने का अफसोस’ करते नजर आए, बल्कि सोशल मीडिया के माध्यम से भारत-अमेरिका के रिश्तों के किस्से भी पढ़ने लगे। भारतीय नेतृत्व की ओर सकारात्मक सार्वजनिक टिप्पणियां यह संकेत भी देती हैं कि कठोर रुख के समानांतर वार्तात्मक स्पेस को संरक्षित रखने की नीति अपनाई जा रही है।
कूटनीति के स्तर पर, कई दौर की चर्चाओं के बावजूद व्यापार राहत-सौदा तत्काल संभव न हो पाया है, पर संवाद के चैनल सक्रिय हैं। भारत की ओर से त्वरित प्रतिशोध से परहेज करते हुए आपूर्ति-शृंखला विविधीकरण, लक्षित घरेलू समर्थन तथा प्राथमिक बाजारों में कूटनीतिक पहुंच का संयोजन अपनाया गया है। इस रणनीति का उद्देश्य अल्पकालिक झटकों को नियंत्रित रखते हुए उच्च-मूल्य क्षेत्रों जैसे स्वास्थ्य, डिजिटल एवं उन्नत विनिर्माण में सहयोग की निरंतरता बनाए रखना है।
ब्रिक्स का परिवार भी बढ़कर अब ब्रिक्स-प्लस की ओर बढ़ चला है, जिसमें व्यापार-वित्त सहयोग और ग्लोबल साउथ की प्राथमिकताओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए भारत ने ऊर्जा-असंतुलन की वास्तविकताओं के बावजूद अवसर-सृजन और जोखिम-प्रबंधन की दोहरी अपेक्षाओं को साधने का प्रयास किया है। ट्रंप भारत पर लगाए जाने वाले टैरिफ का मुख्य कारण भारत-रूस का तेल व्यापार बताते हैं, लेकिन चीन, जो आज भी रूसी तेल का सबसे बड़ा खरीदार है, उसे यह कहकर अपवाद बना देते हैं कि उन्हें अभी चीन के विरुद्ध ऐसा कोई कदम उठाने की जरूरत महसूस नहीं होती।
अगस्त 2025 में अमेरिका द्वारा भारत पर अधिकतम 50% तक आयात-शुल्क लागू किए जाने से प्रभाव उन श्रेणियों पर पड़ा, जो श्रम-प्रधान व एमएसएमई केंद्रित हैं। यह निर्णय ऐसे समय में आया जब 2024 में द्विपक्षीय माल-व्यापार लगभग 129 अरब डॉलर व समेकित (माल+सेवा) व्यापार 212 अरब डॉलर के निकट था।
भारत के प्रति अमेरिका का कड़ा रूख दोनों देशों के बीच एक अस्थाई खटास तो ला सकता है लेकिन स्थायी रूप से संबंधों का प्रभावित होना मुश्किल लगता है। यह जरूर संभव है कि भारत-अमेरिका के बीच चल रही ट्रेड वार्ता में थोड़ी कठोरता देखने को मिले, लेकिन दोनों ही देश एक-दूसरे के प्रति अपनी निर्भरता और अहमियत समझते हैं। ट्रंप का यूरोपियन यूनियन पर 100% टैरिफ का आह्वान मुख्यत: नेगोशिएशन-लेवरेज बढ़ाने का औजार है, इसे तत्कालिक नीति-जोखिम से अधिक संभाव्य-जोखिम मानकर ‘कैल्कुलेटेड रिस्क’ के साथ वार्ता करनी चाहिए।
अमेरिका पर भरोसा केवल ट्रंप के बयानों पर नहीं, बल्कि लिखित समझौतों, अपवादों की सूची और दोनों देशों के बाजार तक पहुंच के स्पष्ट नियमों पर होना चाहिए। एससीओ/ब्रिक्स-प्लस व अन्य अंतरराष्ट्रीय साझेदारियों के जरिए विकल्प बनाना और आपूर्ति शृंखला को विविध बनाना ही भारत के लिए बातचीत में ताकत और आर्थिक स्थिरता दोनों बनाए रखने का सबसे व्यवहारिक तरीका है।