ओपिनियन

नेताओं के लिए सेवानिवृत्ति आयु तय क्यों नहीं होनी चाहिए?

जी.एन. बाजपेयी, सेबी तथा एलआईसी के पूर्व चेयरमैन

2 min read
Jan 07, 2025

आमतौर पर राजनेता, चाहे उनकी उम्र और स्वास्थ्य की स्थितियां कैसी भी हों, रिटायर होने का विकल्प नहीं चुनते। कुछ तो राजनीति के परिदृश्य से गायब हो जाते हैं जबकि अन्य आखिरी सांस तक अपनी कुर्सी से मजबूती से चिपके रहते हैं। हालांकि इसी राजनीतिक परिदृश्य में जयप्रकाश नारायण (जेपी) और नानाजी देशमुख जैसे कुछ गौरवमय अपवाद भी हैं। कुछ अरसा पहले, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने पूर्व केंद्रीय मंत्री सुशील कुमार शिंदे की आत्मकथा 'द फाइव डिकेड्स इन पॉलिटिक्स' के विमोचन अवसर पर कहा था- 'मुझे लगता है कि राजनीति में किसी को रिटायर नहीं होना चाहिए। मैं कह रहा हूं जिसको अपनी विचारधारा पर विश्वास है, जिसे राष्ट्र की सेवा करनी है, समुदाय की सेवा करनी है, उसे आजीवन देश को जगाना होगा।' जेपी को राजी किया गया था कि वे भारत में संवैधानिक रूप से स्थापित लोकतांत्रिक व्यवस्था की बहाली के लिए आंदोलन की मशाल थामें और राजनीति से दूर रहने की अपनी घोषणा से बाहर निकलें। राजनीतिक करियर के दौरान हुआ अनुभव और विशेषज्ञता मददगार होती है और शायद इसीलिए उन्हें इस आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए राजी किया गया था।
हालांकि, एक सक्रिय समाज में, जहां सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था रोशनी की गति की तरह बदल रही होती है, वहां अनुभव पर्याप्त नहीं है। मौजूदा वक्त में, विभिन्न पीढिय़ों के लोग अपने जीवन के उतार-चढ़ाव से जूझ रहे हैं। उनकी आशाएं, आकांक्षाएं, प्राथमिकताएं और यहां तक कि पसंद, वरीयता भी हमेशा सामान्य नहीं होती हैं। राजनेता जो रास्ता सुझाते हैं, उनके विकल्प विभिन्न पीढिय़ों की उम्मीदों और आकांक्षाओं को पूरा नहीं करते हैं। इसलिए सुझाव आता है कि नेताओं के लिए सेवानिवृत्ति की आयु होनी चाहिए ताकि युवा पीढ़ी के लिए रास्ता खुले। राजकाज में प्रभुत्व रखने वालों के लिए मतदाताओं की आकांक्षाओं को समझना, जिसमें उनकी अपनी पीढ़ी के अलावा अन्य पीढ़ी के लोग भी शामिल हैं, सभी के साथ उनका सीधा जुड़ाव जरूरी है। कई वरिष्ठ राजनेता तो ऐसे हैं जो यात्रा करने और नियमित रूप से अपने मतदाताओं के साथ संपर्क करने में भी शारीरिक रूप से स्वस्थ नहीं हैं। जब वह चुनाव में पराजित हो जाते हैं या उनके हार जाने की आशंका होती है तो वह उच्च सदन-राज्यसभा या राज्य विधान परिषद में चुपचाप प्रवेश कर लेते हैं।
पद से प्रेम, सुर्खियों की चाह और राजनीतिक पदों के साथ मिलने वाली सुविधाएं, ऐसे कारक हैं जो राजनेताओं को समझौता करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। उनकी विचारधारा कोई भी रही हो, वह विपरीत विचारधारा वाले दल के साथ राजनीतिक गठन की साझेदारी में विलीन हो जाती है। वास्तव में, बिना किसी मेहनत के ऊंचे बिंदु पर पहुंचने के विचार ने राजनीतिक वंशवाद कायम रखने को बढ़ावा दिया है। वारिसों को राजनीति की बारीकियों को समझने के लिए जमीनी स्तर पर प्रशिक्षित नहीं किया जाता है और वे अक्सर सत्ता की कुर्सी पर बैठने के लिए सक्षम नहीं होते हैं।
अमरीका के राजनीतिक एक्टिविस्ट राल्फ नडार कहते हैं- 'नेतृत्व का कार्य ज्यादा लीडर्स को सामने लाना है, अनुयायी नहीं।' सत्तर वर्ष की उम्र वाले ऐसे भी कई राजनीतिक नेता हैं जिनके इरादे अच्छे हैं और वे वास्तव में समाज की सेवा करना चाहते हैं। वह मानते हैं कि बड़े नेताओं को राजनीति में बदलाव लाने के लिए काम करना चाहिए। संकीर्ण राजनीतिक हितों की जगह व्यापक राष्ट्रीय हितों के लिए। स्वतंत्रता सेनानियों और आजादी के बाद की पहली पीढ़ी के राजनीतिक ढांचे में ज्यादातर ऐसे व्यक्ति शामिल थे, जिनका नए लोगों को लाने में विश्वास था। पद के प्रति उनका प्रेम, यदि था तो, वंचितों की सेवा करना था। अफसोस! वह विचार तेजी से लुप्त हो रहा है। जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित लाखों भारतीय राजनीति में बदलाव की मांग कर रहे हैं।

Published on:
07 Jan 2025 10:26 pm
Also Read
View All

अगली खबर