Bhopal भोपाल गैस त्रासदी को 41 साल बाद भी जहां दर्द और तकलीफों, मुश्किलों और जहर की काली रात के रूप में याद किया जा रहा है, आज वहीं दिखी सपनों की चिंगारी… patrika.com से संजना कुमार के साथ कैमरामैन सुभाष ठाकुर की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट…
Bhopal Gas Tragedy: भोपाल गैस त्रासदी 2-3 दिसंबर 1984 की वो काली रात... जब शहर के लोग घरों में सोए थे… अचानक एक सायरन बजता है और शहर की नींद उडा़ देता है, यूनियन कार्बाइड का ये सायरन अलार्म था… जान बचानी है तो भागो…मिथाइल आइसोसाइनेट (MIC) रिस रही है। लोगों की आंखें जल रही थी और सांसें भी… किसी को नहीं पता था क्या करना है… देखते ही देखते जहर फिजाओं में ऐसा घुला कि अगले दिन की सुबह गैस त्रासदी दुनियाभर के अखबारों की पहली बड़ी खबर बन चुकी थी। दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी बन गई। उस स्याह रात में हवा में फैला जहर सिर्फ उनकी रगों में नहीं उतरा जो उस समय जान बचाने सड़कों पर भाग रहे थे। वो जहर पीढ़ियों में उतरा। उन बच्चों में उतरा जो उस समय गर्भ में थे और उनमें भी जिनके माता-पिता को गैस ने छुआ तक नहीं लेकिन उन्हें पर्यावरण में फैले दंश का असर विरासत में मिल गया।
भोपाल के दक्षिण-पूर्वी क्षेत्र में गैस का प्रभाव मुख्य रूप से दक्षिण-पूर्वी दिशा में था, जिससे उस क्षेत्र के कई इलाके गंभीर रूप से प्रभावित हुए। इस क्षेत्र में कई घनी आबादी वाले इलाके थे, जहां लोगों ने सीधे तौर पर गैस को झेला, जहां मिथाइल आइसोसाइनेट हजारों जिंदगियां लील गई थी। हर तरफ लाशों का ढेर, दफनाने के लिए जगह बची न दाह संस्कार के लिए लकड़ियां बचीं… तब नर्मदा में शवों को बहाया गया…। दर्द यहीं खत्म नहीं हुआ हर साल मीडिया में अहम जगह पाता है… जो लोग बचे… उनकी और उनकी अगली पीढ़ियों की कहानी सुनाता है…
गैस राहत संगठनों का आरोप है कि 1991 में सुप्रीम कोर्ट ने गैस पीड़ितों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए, उनकी मार्मिक स्थिति को देखते हुए, रिसर्चों में सामने आये भयावह सच को देखते हुए महत्वपूर्ण फैसला सुनाया था कि गैस पीड़ित एक लाख बच्चों का बीमा किया जाए। यह फैसला गवाह है कि सुप्रीम कोर्ट को भी पता था कि इसका असर पीढ़ियों में दिखेगा। लेकिन आज तक एक भी बीमा नहीं किया गया।
1992 में मध्य प्रदेश सरकार ने एक नई पहल करते हुए स्पेशल प्रोजेक्ट एट रिस्क चिल्ड्रन (SPARC) कार्यक्रम शुरू किया। इसके तहत हजारों बच्चों को जन्मजात विकृति और गंभीर दोषों के साथ पहचाना गया। लेकिन केवल 24 बच्चों की सर्जरी ही कराई गई। 1997 में इसे बंद कर दिया गया। संगठनों का कहना है कि अगर सरकार ये मान चुकी थी कि बच्चे खतरे में हैं, तो उनका दीर्घकालीन इलाज क्यों शुरू नहीं किया गया? क्यों इनके लिए पुनर्वास केंद्र नहीं खोले गए? SPARC को क्यों बंद कर दिया गया।
यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, सैन डिएगो के वैज्ञानिकों की 2023 की रिपोर्ट ने एक और भयावह सच सामने रखा जिसके मुताबिक जिन महिलाओं को गैस सीधे नहीं छू पाई थी फिर भी उनकी पीढ़ियों में जन्म लेने वाले बच्चों में कैंसर का खतरा 8 गुना तक ज्यादा है। गैस राहत संगठनोंं का आरोप है कि दुनियाभर को हिला देने वाला ये शोध सामने आने के बाद भी सरकारें नहीं जागीं।
1984 की रात जो बच्चे 8-14 साल के बीच थे आज वे 49-55 के बीच के हैं। उनकी कहानी झकझोरकर रख देती है। गैस पीड़ित माता पिता के बीमार रहने के कारण इन्हें बचपन में ही पढ़ाई छोड़कर काम करना पड़ा। पढ़ाई, करियर के सपने सब हवा में उड़ गए। कई मजदूरी करने वाले मासूम डिप्रेशन का शिकार हुए, नशेड़ी बने और आत्महत्या को ही सही रास्ता समझकर जिंदगी खत्म कर ली। इस पीढ़ी का कर्ज आज भी भारी है। लेकिन चुकाए कौन?
लेकिन आज 41 साल बाद patrika.com की टीम जब ऐसे ही जख्मों की नई कहानियां तलाशने निकली, अपने सवालों- दर्द अब कितना बाकी है…? कितनी पीढ़ियां और झेलेंगी…? क्या खत्म हो पाएगी विरासत में मिली मुश्किलों की ये कहानियां…? क्या कभी भोपाल इनसे उबर पाएगा…? तो उम्मीद की एक चिंगारी फूटती दिखी… विरासत में मिली शारीरिक और मानसिक बीमारियों से उबरते बच्चे अब सपने देखने लगे हैं… कई सपनों की उड़ान भरते ओलंपिक मेडल तक जीत चुके हैं।
विरासत में मिले जहरीले दर्द को झेल रही तीसरी पीढ़ी के ये मासूम बच्चे अब कोई शिक्षक बनना चाहता है, तो कोई डॉक्टर, शरीर से किसी न किसी रूप में दिव्यांग इन बच्चों की हंसते-मुस्कुराते चेहरों पर उम्मीदों की रोशनी का नूर साफ दिख रहा था। मानवीय संवेदना की दुखती रगें अब मानवीय संवेदनाओं की मिसाल कायम करने की तैयारी कर रही हैं…
ये बीमारी कभी खत्म होने वाली नहीं है, जिनके जिस्म में ये बीमारियां उतरीं, उनके बच्चों के जींस में भी पहुंच गईं। जेनेटिक बीमारियों को खत्म करना आसान नहीं है। खत्म हो सकती हैं, क्यों कि इनका इलाज केवल कार्बाइड कंपनी डाऊ केमिकल के पास है, जिसे हमारी सरकारें आज तक पता नहीं कर पाई हैं। न ही डाऊ केमिकल वाले खुद इसका इलाज बताना चाहते हैं। कंपनी लाखों के जीवन से खिलवाड़ कर रही है। बस हम तो इन्हें किसी भी तरह बचाने की कोशिश कर रहे हैं। गैस पीड़ित बच्चों में दुनियाभर में पाई जाने वाली विभिन्न प्रकार की दिव्यांगता मिल जाएगी।
सरकारों से यही उम्मीद की जाती है कि हम सीमित संख्या में ही बच्चों का इलाज और पुनर्वास कर पा रहे हैं। सरकार को आगे आना चाहिए, हजारों माता-पिता और उनके बच्चे इसके इंतजार में हैं। पुनर्वास केंद्र खोले जाएं, सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन किया जाए, तो ये बच्चे भी जिंदगी में आगे बढ़ सकते हैं। अपने परिवार का पालन-पोषण करने के साथ ही लोगों की मदद के लिए तैयार हो सकते हैं। क्यों कि आज कई बच्चे ओलंपिक मेडल जीत चुके हैं, कई नौकरियां कर रहे हैं। कई संघर्षों में खुशियां तलाशना शुरू कर चुके हैं। चिंगारी ट्रस्ट चाहता है कि ये बच्चे इतने काबिल बने की अपनी और दूसरों की मदद खुद कर सकें।
-रशिदा बी, चिंगारी ट्रस्ट/भोपाल गैस राहत संगठन
अब तक गैस पीड़ितों पर सरकारी और गैर सरकारी मिलाकर सात शोध हुए हैं। इन शोध की रिपोर्ट कहती है कि गैस पीड़ितों के जेनेटिक्स पर असर हुआ है। इसके अलावा कुछ शोध हुए हैं, जो बताते हैं कि इनकी अगली पीढ़ियों में कैंसर का खतरा सबसे ज्यादा है। जन्मजात विकृतियां और इम्यून सिस्टम पर भी इसका गहरा असर है। अब शोध हुए हैं तो सरकार के पास नीति हो कि ऐसे बच्चों का इलाज करें। सुप्रीम कोर्ट ने भी 1991 में अगली पीढ़ियों में जन्म लेने वाले एक लाख बच्चों का बीमा कराने का फैसला दिया। लेकिन आज तक कुछ नहीं हुआ। 1992 में मध्य प्रदेश सरकार ने स्पेशल प्रोजेक्ट एट रिस्क चिल्ड्रन (SPARC) कार्यक्रम शुरू किया। हजारों बच्चों की पहचान करवाई गई जिन्हें जन्मजात विकृति थी। इनमें से कुल 24 बच्चों को इलाज मिला, जिनके दिल में छेद आदि विकृतियों का इलाज किया गया। लेकिन बाद में इसे बंद कर दिया गया। आज तक उनके इलाज की सुविधा नहीं है।
-रचना ढिंगरा, संभावना ट्रस्ट/ भोपाल गैस राहत संगठन
- 16,848 गैस पीड़ितों के आयुष्मान कार्ड बन चुके हैं
- प्रक्रिया लगातार जारी है, लक्ष्य ये है कि एक भी पीड़ित न छूटे
- गैस पीड़ितों को 6 गैस राहत अस्पतालों और 9 औषधालयों में मुफ्त इलाज दिया जा रहा है
-विशेष प्रकरणों में अतिरिक्त खर्च भी सरकार उठाती है।
(सोर्स- जनसंपर्क, मध्य प्रदेश (Website))
इन दावों की हकीकत जानने के लिए सत्येंद्र राजपूत, सीएमओ गैस राहत से लेकर एम्स (कैंसर से जूझ रहे या डायलिसिस के लिए अनुबंध है एम्स से) और बीएमएचआरसी तक से संपर्क किया गया। लेकिन कोई भी इस बारे में बात नहीं करना चाहता। कोई मीटिंग में है, तो कोई अधिकृत नहीं है, तो कोई फोन रिसीव तक नहीं कर रहा।
जबकि गैस पीड़ितों को न्याय दिलाने और उनके पुनर्वास के लिए 41 साल से लड़ रहे संगठनों के आरोप हैं कि सरकारें कदम पीछे खींचे हुए हैं। सरकारें बहुत कुछ कर सकती हैं और उन्हें करना भी चाहिएं... लेकिन वो इस ओर से आंखें मूंदे हैं।