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हॉकी के जादूगर ध्यानचंद की अनसुनी कहानियां, बेटे अशोक कुमार की जुबानी…Exclusive Interview

Major Dhyanchand: 1995 में हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद के जन्म दिवस 29 अगस्त को राष्ट्रीय खेल दिवस घोषित किया गया। आज वही सुनहरा अवसर है.. patrika.com के साथ उनके बेटे अशोक कुमार ने ऐसे पल साझा किए जो इतिहास की किताबों में शायद ही लिखे गए हों, 1936 के बर्लिंन ओलंपिक में हिटलर से मुलाकात से लेकर यूनियन जैक के नीचे बहाए उनके आंसुओं तक और एक पुरानी इंडियन टाई की बेशकीमती याद तक... खुद्दारी से जिंदगी को देश के लिए समर्पित करने वाले मेजर ध्यान चंद केवल एक खिलाड़ी नहीं थे, बल्कि खेलभावना और देशभक्ति की जीती-जागती मिसाल थे...

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Aug 29, 2025
Major Dhyanchand son ashok kumar exclusive interview(Photo: Social Media)

Major Dhyanchand: संजना कुमार @ patrika.com: हॉकी के जादूगर मेजर ध्यान चंद का नाम खेलों के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया है। लेकिन उनके बेटे अशोक कुमार की आंखों से जब हम इस महानायक को देखते हैं, तो हमें सिर्फ एक खिलाड़ी नहीं बल्कि, एक ऐसे इंसान की तस्वीर दिखाई देती है, जिसने कभी खुद को बड़ा या महान नहीं माना। हमेशा अपनी टीम को श्रेय दिया। अशोक कुमार हमें उन्हीं अनसुनी और अनकही यादों में लेकर जा रहे हैं, जो एक साधारण से भारतीय सैनिक ध्यान सिंह से मेजर ध्यान चंद बनकर उभरा और किसी तारे सा चमक उठा, जिसने भारत में खेलों का साम्राज्य स्थापित किया… और दुनियाभर में उसकी नई पहचान बनाई… मेजर ध्यान चंद के बेटे अशोक कुमार के साथ पत्रिका.कॉम की खास बातचीत…

Q.1 - आप अपने पिता को किस तरह देखते हैं, घर में उनका स्वभाव कैसा था?

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A.: मेरे पिता वे एक फौजी थे, किसी भी आर्मी में पहला काम होता है अनुशासन, समर्पण और घर में वही गुण, वही अनुशासन था। उन्होंने हमें भी यही सिखाया। मैं अपने पिता बचपन से ऐसे रूप में जानता हूं जिन्होंने नि:स्वार्थ भाव से देश की सेवा की। उन्होंने अपने से बड़ों के हुक्म को हमेशा आगे रखा, उस पर काम किया। एक खिलाड़ी के रूप में खेलते हुए भारतीय टीम के कप्तान बनकर ओलंपिक 1936 में जब जर्मनी पहुंचे और तानाशाह हिटलर की टीम के साथ खेला, तीसरी बार गोल्ड मेडल हासिल करने जर्मनी पहुंचे तो तानाशाह हिटलर को उसी की धरती पर हराया, जबकि वह टीम इतनी मजबूत थी कि उसे हराना मुश्किल था। उस समय हम गुलाम हुआ करते थे, भारत पर अंग्रेजों का राज था। उसके बावजूद उन्होंने 8-1 गोल से पराजित किया। हम गर्व महसूस करते हैं कि हम उस शख्सियत के परिवार से जुड़े जिन्होंने इस देश की सेवा की।

Q.2: क्या वे आपको अपने खेल के निजी अनुभव सुनाते थे?

A. नहीं, उन्होंने कभी भी खेल की चर्चा हम बच्चों के सामने नहीं की। वे बेहद रिजर्व रहते थे। लेकिन उनसे मिलने जब लोग आते थे, तो वो भी उनसे यही पूछा करते थे, जो सवाल आपने किया। तो हम उस वक्त छिप-छिप कर उनकी बातें सुना करते थे। वो बातें आज तक हमारे दिमाग में हैं कि किस तरह वो हिटलर से मिले, उसकी टीम को हराया। किस तरह उन्होंने अमेरिका को 1932 ओलंपिक 24-1 से हराया। किस तरह पहले ओलंपिक टूर्नामेंट में जब हमारे पास खेल के कोई संसाधन नहीं थे, कोई मिनिस्ट्री नहीं थी। स्पोर्ट्स की कोई हेल्प नहीं थी। इसके बावजूद भारतीय टीम के 11 खिलाड़ी वहां जाते हैं और गोल्ड मेडल जीत कर आते हैं। वो देश के लिए अजूबा था, क्योंकि हमारे देश की पहचान ओलंपिक खेलों से ही बननी शुरू हुई।

Q3.: उनके द्वारा दी गई कौन-कौन सी सीख हैं, जिसे आप जिंदगी भर से फॉलो कर रहे हैं?

A. जैसाकि मैंने बताया कि वे हमेशा से अनुशासनप्रिय रहे हैं, हमने भी उनसे चोरी-छिपे हॉकी खेली। उन्होंने हमें कभी भी बढ़ावा नहीं दिया कि हम लोग हॉकी खेलें। क्योंकि घर में वे ध्यान सिंह थे वही उनका असली नाम था, लेकिन घर के बाहर वो ध्यान चंद थे। उनकी छवि, उनका ग्लैमर, उनकी लेगेसी एक चमकते सितारे की थी। लेकिन घर में वे एक ऐसे पिता थे, जिन्हें घर के सदस्यों का पालन-पोषण करना था, अपनी नौकरी से मिलने वाली आय से। तो उनका ऐसा व्यक्तित्व हम बच्चों के लिए थोड़ा अजब सा था।

बड़े अनूठे तरीके से जताते थे प्यार

वो हमसे ज्यादा बातचीत नहीं करते थे। जब वो रिटायर हुए 1956 में तब हमारा पूरा परिवार मेरठ से झांसी आया। यहां पुश्तैनी घर है, जहां आज भी हम रहते हैं। उस घर में वे साल में 2-3 महीने के लिए आते थे। अपने परिवार से, हमसे मिलने के लिए। उनका हम लोगों को प्यार करने का तरीका बड़ा अनूठा था। वो अपने मित्रों से मिलकर रात में घर आया करते थे। तब वो मिट्टी की हांडी में रसगुल्ले लेकर आते थे। हम सोए रहते तो जगाते और एक-एक रसगुल्ला हमें खिलाते थे।

वो चाहते थे हम पढ़-लिखकर नौकरी करें

एक पिता के रूप में उन्होंने कभी नहीं चाहा कि हम लोग हॉकी खेलें। खेलने से हमें हमेशा रोका। क्योंकि घर आते ही वे ध्यान चंद नहीं हमारे पिता ध्यान सिंह बन जाते थे। उनके समय में खेल ऐसी विधा थी कि जिसमें कोई करियर नहीं था। आप खेलें और वापस आ जाएं बस इतना ही था। खेलों की वेल्यू नहीं थी। परिवार को कैसे संभालते। वे लोग आर्थिक रूप से इतने सक्षम नहीं थे। उन्हें इस बात का दुख रहा, उन्होंने कभी कहा नहीं, लेकिन हमने महसूस किया, कि उन्होंने अपनी उम्र के 50 साल नौकरी में बिताए। जो शख्स तीन ओलंपिक का गोल्ड मेडलिस्ट हो, जो शख्स पद्मभूषण की उपाधि से नवाजा गया हो, जो शख्स एक साधारण सैनिक से मेजर के पद से रिटायर्ड हुआ हो, उन्हें आर्थिक परिस्थितियों का सामना करना पड़ता था। उसे देखते हुए उन्होंने हमे खेल से रोका।

वे कहते थे, मैं तो सिपाही था, तो आर्मी में खेलना ही था, और मैंने अपने आप को ऐसे खिलाड़ी के रूप में ढाल लिया कि मैं एक बेहतर खिलाड़ी बन गया। लेकिन ये मुमकिन नहीं है कि तुम भी वैसे ही खिलाड़ी बनो जैसा मैं बना हूं। वो चाहते थे कि हम पढ़-लिखकर कहीं नौकरी करें।

Q.4: उन्हें हॉकी का जादूगर कहा जाता था, उनके खेल में ऐसी क्या खासियत थी?

A. उनकी मेहनत, उनका समर्पण, उनका हार्डवर्क और कमिटमेंट अपने आपसे, और वो कमिटमेंट देने वाले उनके गुरु जो आर्मी में थे सूबेदार मेजर बाले तिवारी साहब हुआ करते थे। जो फौज में बड़ी रैंक के अफसर थे, जिन्होंने ध्यान सिंह को अर्ली स्टेज में आर्मी में खेलते देखा, तो उन्होंने उनकी प्रतिभा को पहचाना। उन्होंने कहा, ये तो बहुत अच्छी हॉकी खेलता है, उसकी ड्रिबलिंग बहुत अच्छी है। बॉल लेकर चलने का, दौड़ने का अंदाज बहुत अच्छा है, तो वे इतने मुखातिब हुए, कि एक दिन उन्होंने ध्यान सिंह को बुलाया और उनका नाम पूछा, उनके नाम बताने पर उन्होंने उनके खेल और उनकी बहुत तारीफ की। तब ध्यान सिंह केवल 17-18 साल के थे। उनकी प्रेक्टिस देखते हुए उन्होंने कहा, कि आर्मी के बड़े-बड़े खिलाड़ी खेल रहे हैं, उनको छकाते हुए तुम गोल मारके आ जाते हो।

ध्यान सिंह को दी नसीहत

लेकिन एक नसीहत मैं तुम्हें देता हूं कि, तुम इंडिव्युजुअल खेलना बंद कर दो। ये टीम गेम है, ये 11 खिलाड़ियों का खेल है। तुम अकेले टीमों को नहीं हरा सकते। तुम्हें उसके लिए अपने प्लेयर्स की सहायता लेनी होगी, उनके साथ कॉर्डिनेशन बनाना होगा। उस दिशा में काम करो। ये बात ध्यान सिंह के दिल में बैठ गई। उसके बाद जब दोपहर में सारे लोग आराम कर रहे होते थे, तब ध्यान सिंह जंगल के किसी एक कोने में अपनी हॉकी की प्रेक्टिस करते थे। उसके बाद अपनी ड्यूटी करते थे। फिर शाम को मैदान पर खेलने जाते थे। जो कुछ सीखते थे, अपने अकेलेपन और अपनी हॉकी से उसे शाम को मैदान पर खिलाड़ियों को अपना खेल दिखाते थे। रात में खाने से पहले जो आधे पौन घंटे का वक्त उन्हें मिलता था, उस वक्त भी वे जंगल में जाकर एक कोने में अपनी प्रेक्टिस किया करते थे। जिस खेल ने उन्हें ध्यान सिंह से ध्यान चंद बनाया, हॉकी का जादूगर बनाया, तो उनका खेल ऐसा था कि लोग देखकर अचंभित हो जाते थे।

हॉकी से क्यों चिपकी रहती है बॉल?

लोग पूछते थे कि उनकी हॉकी से बॉल हटती क्यों नहीं है, चिपकी क्यों दिखती है। इसका जवाब ढूंढ़ने के लिए कई बार उनकी हॉकी को बदलकर, तोड़कर भी देखा गया कि इसमें कहीं चुंबक या जादू तो नहीं है। और ये चीजें ध्यान सिंह की बदौलत हुईं जो उन्होंने हार्ड प्रेक्टिस करके हासिल की थी।

Q.5: क्या उन्हें कभी इस बात का मलाल रहा कि उन्हें वह सम्मान और हक नहीं मिला, जिसके वे हकदार थे, आपका परिवार इस बारे में क्या सोचता है?

A. बहुत अच्छा सवाल है बिल्कुल! कुछ सोचते हैं और बोलना शुरू करते हैं…वो नि:स्वार्थ भाव से वे खेले। एक वाकया मेरे सामने का है। मैंने एक एप्लिकेशन बनाई। 1977-78 में पेट्रोलियम मिनिस्ट्री को उनकी तरफ से ध्यानचंद जी की खेल की उपलब्धियों का ब्यौरा देते हुए, मैंने लिखा कि मैं मेजर ध्यान चंद मुझे एक गैस एजेंसी की आवश्यकता है। और मैं उम्मीद करता हूं कि आप मेरी इस अर्जी को स्वीकार करते हुए मुझे एक गैस एजेंसी प्रदान करने की कृपा करेंगे। इस पर साइन करवाने के लिए मैं अपने पिता के पास गया, तो उन्होंने उसे पढ़ा और पूछा कि ये क्या है। तो उन्होंने कहा कि ये आपकी तरफ से आवेदन है पेट्रोलियम मिनिस्ट्री को आपने जो उपलब्धियां हासिल की हैं, उसके बदले में आपको ये गैस एजेंसी दे दें। तो उनके मुंह से एक ही लाइन निकली जो मुझे आज तक याद है। उन्होंने आर्मी की भाषा में बोलते हुए स्पष्ट कहा कि, 'हम भीख नहीं मांगेगा। ये उनका (सरकारों) का काम है। वो देखें कि मैंने क्या किया है, लेकिन हम मांगेंगे नहीं। ये थे ध्यानचंद एक खुद्दार शख्सियत।

Major Dhyanchand Son Ashok Kumar

Q.6: आपके पिता के जमाने की हॉकी और आज की हॉकी में आप क्या अंतर देखते हैं?

A. आज की हॉकी में जादू खत्म हो गया है। आज हॉकी बल और ताकत के दम पर खेला जाने वाला खेल बन गया है। वो कला कौशल, वो हॉकी का मिजाज जो ध्यानचंद के समय था जब हॉकी तोड़कर देखा जाता था कि इसमें कोई जादू तो नहीं है। आज कृत्रिम घास के ऊपर खेला जाने वाला खेल बन गया है हॉकी। एस्ट्रोटर्फ नकली घास, कार्बन की हॉकी स्टिक से बदलकर नकली फाइबर की हॉकी स्टिक, यहां तक कि बॉल भी बदल गई है। हॉकी का ऑरिजनल स्वरूप बदल गया है। मैदान पर जो रोमांच पैदा होता था, आज वो नहीं है। मैं ये नहीं कह रहा कि आज की हॉकी खराब है, लेकिन हां उतना कला कौशल नहीं जितना तब हुआ करता था।

Q.7: क्या हॉकी उसी स्वर्णिम दौर में वापस जा सकती है? आज हॉकी के लिए सरकार और क्या ठोस कदम उठा सकती है?

दूसरे मुल्कों में हम जाते रहते हैं, चाहे यूरोपियन देश हों, अमेरिका हो, ऑस्ट्रेलिया हो, न्यूजीलैंड हो, वहां हॉकी के लिए एस्ट्रोटर्फ ग्राउंड की भरमार है। पहले हमारे आसपास, स्कूल, कॉलेजों में खाली मैदान मिल जाते थे जहां बच्चे जाकर खेला करते थे। लेकिन जब जनसंख्या ज्यादा हो जाती है, तो उसके परिणाम हमें भुगतने होते हैं। अब जब तक एस्ट्रोटर्फ नहीं होती तो बच्चा खेलने नहीं जाता। स्कूल-कॉलेजों के पास एस्ट्रोटर्फ नहीं है। बिरला एक दो कॉलेज होंगे जहां एस्ट्रोटर्फ लगी होगी देश में। गली मोहल्ले में बच्चे खेलते थे, वो चलन, वो हॉकी का रूप सब बंद हो गया। अब बच्चे एस्ट्रोटर्फ पर ही खेलना चाहते हैं। उतनी संख्या में एस्ट्रोटर्फ नहीं लगी, जितनी होनी चाहिए। इसलिए हॉकी प्लेयर्स की संख्या कम होती चली गई।

सरकारों ने 41 साल बाद भी हॉकी को जिंदा रखा

हां ये जरूर है कि हमारी सरकारों ने इतनी दरियादिली दिखाई कि एमपी हो, यूपी हो, पंजाब हो, हरियाणा हो, कर्नाटक हो, मुंबई में भी जगह नहीं वहां जमीन ही नहीं है, तो उतनी एस्ट्रोटर्फ देश में नहीं लगी। बच्चों को माहौल नहीं मिल रहा। उन्हें जो स्कूल में मिलता है वो उसी में खेलते हैं। हॉकी का ग्राउंड ही नहीं तो, कहां खेलेंगे। इस सबके बावजूद केंद्र सरकार और स्पोर्ट्स ऑथोरिटी ऑफ इंडिया ने हॉकी को जिंदा रखा है। क्योंकि हमारी हॉकी टीम को 41 साल जीत मिली और मेडल मिले। इतने लंबे समय में तो कोई सरकार या संस्था छोड़ देती हैं कि अब इसमें क्या रखा है। लेकिन हमारी सरकारों ने इसके लिए टूर्नामेंट्स जारी रखे, मैच होते रहे। इसका परिणाम ये हुआ कि पिछले दो ओलंपिक में हमने बैक टू बैक ब्रॉन्ज मैडल जीता।

Q.8: अभी तक आपके पिता को भारत रत्न नहीं दिया गया है, समय-समय पर इसकी मांग होती रही है। इस बारे में आपका क्या सोचना है?

ये मांग तो इस देश हर जनमानस की है। जिसे आवाज के रूप में आप मुझसे पूछ रही हैं, तो आप भी उन्हीं में से एक हैं, जो ये सवाल पूछ रही हैं, जो ये समझती हैं कि इस देश की ऐसी शख्सियत को जिसने हॉकी के जरिए एक खेल जगत का साम्राज्य स्थापित किया। देश को सम्मान दिलाया। उनको इस पुरस्कार से नवाजा जाना चाहिए था। वो ऐसी शख्सियत थे कि उस जमाने में जब हम कुछ नहीं थे, खेलने के जरिये नहीं थे, तब उन्होंने (Major Dhyanchand) इस खेल में एक्स्ट्रीम ऊंचाइयां छू ली थीं। उन्हें इतनी उपलब्धियां और उपाधियां मिलीं। उन्हें देखते हुए हमारे भारत में ऐसे खिलाड़ी पैदा हुए जिन्होंने गोल्ड मैडल जीते सिल्वर मैडल जीते, अनगिनत खिलाड़ियों को पद्मश्री, अर्जुन अवॉर्ड, खेल रत्न जो राजीव गांधी के नाम पर हुआ करता था, भारत सरकार ने उसे ध्यान चंद खेल रत्न कर दिया है, उस पुरस्कारों से उन्हें नवाजा गया। ये हॉकी की वजह से ही संभव हो पाया। उस समय हॉकी उस दिशा में थी जब ये था कि हम हॉकी में अच्छा कर भी पाएंगे या नहीं, लेकिन उस वक्त भी हमने दिखा दिया कि भारत हॉकी में सबसे आगे हैं।

तब भी हम सबसे आगे थे आज भी हमारे पास ही है हॉकी का वर्ल्ड रिकॉर्ड

आज भी हमारा नाम दुनिया में सबसे ऊपर है हॉकी में अकेले भारत ने 8 गोल्ड मेडल जीते हैं, जो आज तक एक रिकॉर्ड है। ओलंपिक में मेडल जीतना बहुत बड़ी बात होती है। हर देश चाहता है कि उसका देश ओलंपिक में ज्यादा से ज्यादा मेडल जीते। उन्होंने वो रुतबा देश को दिलाया। एक सिल्वर मेडल हमारे पास है, एक गोल्ड मेडल है, 4 ब्रॉन्ज मेडल हैं। अनेकों खिलाड़ी हैं। जिन्होंने एक लाइन से 100 साल होने जा रहे हैं, इसका रुतबा बरकरार है, इसका मतलब हॉकी अब भी आगे बढ़ रही है और बढ़ेगी।

Q.9: सरकार या खेल संस्थाओं ने उनके योगदान को सही मायनों में याद रखा है?

A. हर चीज हमारे देश के नागरिकों के द्वारा 1995 में हमारे देश में मेजर ध्यानचंद का जन्म दिन को ऐसे सेलिब्रेट किया जाता था कि किसी ने छोटा सा फंक्शन कर दिया। उनकी मूर्ति पर फूल माला चढा दी। लेकिन मैं इसका श्रेय झांसी के पूर्व सांसद दिवंगत विष्णव शर्मा जी को देना चाहूंगा, उन्होंने अपने अथक प्रयासों से उन्होंने उनके बायोडेटा को संसद में रखा और डिमांड की कि इस शख्स का जन्मदिन ये देश राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में क्यों नहीं मना सकता? जिसमें सभी खेल शामिल हों, सभी खिलाड़ी प्रेरित हों। वो प्रस्ताव 1995 में पारित हुआ। उसके बाद देश में राष्ट्रीय खेल दिवस की घोषणा हुई। लेकिन उस समय की सरकारों और बाद की सरकारों ने इसे इतना महत्व नहीं दिया, लेकिन आज मुझे बेहद खुशी है कि आज संपूर्ण देश में हमारे देश की सरकारों द्वारा इसे मनाया जा रहा है।

Q.10: अगर मेजर ध्यानचंद आज हमारे बीच होते तो वो देश के युवा खिलाड़ियों को क्या संदेश देते?

किसी भी खेल को खेलने के लिए टारगेट सेट करो, कमिटमेंट करो चाहे जो हो जाए खेलूंगा, फिर प्रण करो कि ऐसा खेल खेलूंगा कि जो ऊंचाईयां छू जाए। मैं ये नहीं सोचूंगा कि क्या मिल रहा है क्या नहीं। मैं ये सोचकर चलूंगा तो मैं दुविधा में रह जाऊंगा। उनसे हटते हुए आप कोई भी खेल खेलें, उसमें ऊंचाइयां छूने की कोशिश करें। कमियों पर गौर करें, प्रेक्टिस से उसे सुधारें। जैसा ध्यानचंद ने किया। हार्डवर्क, समर्पण, कमिटमेंट करने से मिलेगा आत्मविश्वास वही ऊंचाई पर ले जाएगा।

Q.11: उनके जीवन का कोई ऐसा किस्सा या घटनाक्रम जो आज भी आपको गहराई तक भावुक कर देता है...

-1. विनम्रता और लीडरशिप

-उन्होंने कभी ये नहीं कहा कि मैं कोई जादूगर नहीं हूं, मैं बहुत बड़ा खिलाड़ी हूं। उन्होने हमेशा अपने साथियों को श्रेय दिया कि उन्होंने उनके खेल को संवारा, उन्हें इतने पासेस दिए जिससे मैं ध्यान सिंह से ध्यान चंद बन पाया।

-2.- देशभक्ति का जज्बा

1936 में खेलों के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण साल, जब भारत की टीम ने हिटलर की टीम को हराया, तो 5वें 6ठे गोल में हिटलर मैदान छोड़कर चला गया। हिटलर जैसी शख्सियत जिससे पहली बार कोई भारतीय मिला होगा। जिसने भारत के कप्तान को बुलाकर कहा था- तुम मेरे देश के लिए खेलो मैं तुम्हें जर्मन टीम के साथ ही देश में बहुत बड़ा ओहदा दूंगा। ध्यान चंद ने एक लाइन में उत्तर दिया…मैं खेलूंगा तो सिर्फ अपने देश के लिए।

--जब 8-1 से जब जर्मन टीम को हराकर टीम इंडिया जीतती है, तो सभी मिलकर जश्न मना रहे होते हैं, बधाई दे रहे होते हैं, उस समय ध्यान चंद वहां से मिसिंग थे, सब खिलाड़ी चिंतित हुए, ध्यानचंद कहां है, उसे ढुंढकर लाओ। उन्हें ढूंढ़ते हैं तो वे उन्हें 300-400 गज दूर जहां ओलंपिक विलेज में सारे देशों के झंडे लहराए जाते हैं, वे वहां थे। वे वहां रो रहे थे। पूछा कि हम तो जीत गए हैं, और तुम रो रहे हो, उन्होंने झंडों की तरफ इशारा किया कि हमने जो जीत हासिल की है वह यूनियन जैक के अंडर में है। मुझे अफसोस है कि मैं अपने देश के तिरंगे के नीचे ये जीत हासिल नहीं कर सका।

-3.- महानायक ध्यानचंद

एक और घटना है जो मुझे खुशी भी देती है और ध्यान चंद को मेरी नजरो में और भी महान बना देती है। जब पहली बार भारत की टीम 1928 में एम्स्टर्डम गई थी। हॉलेंड की टीम को 3-0 से परास्त किया था। टीम तो इंडिया वापस आ गई। उसके बाद मैं 1988 में हॉलेंड गया। 70 साल बाद जब मैं गया वॉटर्न हॉकी टीम का मैंबर था मैं वहां पर। वॉटर्न हॉकी टूर्नामेंट खेलने गया था। वहां हॉकी का वर्ल्ड कप भी था फाइनल मैच था। हॉलेंड की टीम का स्पैन की टीम से मुकाबला चल रहा था। मैं स्टेडियम में बैठा था। उस सीट से दो सीटें खाली थीं पूरा स्टेडियम खाली था। मैंने देखा एक ओल्ड कपल इन खाली कुर्सियों की ओर चला आ रहा है। हेट लगाए हुए सूट-बूट पहने वो कपल मेरे पास आकर बैठ गए थे। मेरी नजर उनकी टाई पर पड़ी, वो उनके सूट पर कहीं से मैच नहीं कर रही थी।

वह कॉटन की टाई थी, इंडियन टाई

वह कॉटन की टाई थी। वो हल्की नीली और डार्क ब्लू कलर की टाई थी, जो हम इंडियन्स को सेरेमोनियल किट के तौर पर दी जाती है। आप कहीं फंक्शन में जाएं तो वहां पहन जाएं, इंडिया के कोट या ब्लेजर पहने। मैं अपने आपको रोक नहीं सका। मैंने अंग्रेजी में पूछा- सर क्या मैं आपसे एक सवाल कर सकता हूं, उन्होंने कहा हां… तो मैंने कहा ये तो इंडियन टाई लग रही है। तपाक से वो बोले- यस… ये इंडियन टाई है और मैं इसे पहने हुए हूं। ये टाई मेरे लिए बहुत मूल्यवान है, मेरी टीम आज मैच खेल रही है, इस टाई की खासियत ये है कि ये टाई मुझे मेजर ध्यान चंद ने दी थी, जिनके खिलाफ मैं एम्स्टर्डम में मैच खेला था। 1928 में, जब हमारी टीम हार गई तो मैं ध्यानचंद के पास गया। उनसे कहा कि, तुमने एक बेहतरीन टीम को हराया है। मैंने रिक्वेस्ट की कि आप मुझे अपनी कोई यादगार चीज दो मैं उसे रखना चाहता हूं। तब उनके पास क्या था, इसलिए उन्होंने अपनी टाई उसे दे दी। तब मैंने उन्हें बताया कि, जिस इंसान ने आपको ये टाई दी, वो मेरे पिता थे।

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Updated on:
29 Aug 2025 06:29 pm
Published on:
29 Aug 2025 05:19 pm
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