1971 में पाकिस्तान के गले में अंगूठा डालने का श्रेय एयर चीफ मार्शल इदरीस हसन लतीफ को भी जाता है। वे उस वक्त सहायक वायुसेनाध्यक्ष थे।
ठीक 53 साल पहले इसी दिन ढाका में पाकिस्तानी सेना ने भारतीय फौज के सामने हथियार डाल दिए थे। 90,000 से ज्यादा सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया। तब से हर साल देश इस दिन को गर्व से मनाता है। दिल्ली में मुख्य समारोह होता है, क्योंकि यहीं 1971 के कई नायकों की यादें बसी हैं।
जब भी आप कर्तव्यपथ (पहले रेसकोर्स रोड) से गुजरें, तो एक पल रुकिए। याद कीजिए फ्लाइंग ऑफिसर निर्मलजीत सिंह सेखों को। 1971 की जंग के दौरान वे यहीं एयरफोर्स क्वार्टर में रहते थे। 14 दिसंबर को उन्होंने पाकिस्तान के दो सेबर जेट विमान मार गिराए। मात्र 26 साल की उम्र में वे शहीद हो गए। देश ने
उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र दिया। लंबे समय से मांग है कि रेसकोर्स इलाके की किसी सड़क का नाम उनके नाम पर हो। उम्मीद है, जल्दी बात बनेगी।
1971 में पाकिस्तान के गले में अंगूठा डालने का श्रेय एयर चीफ मार्शल इदरीस हसन लतीफ को भी जाता है। वे उस वक्त सहायक वायुसेनाध्यक्ष थे। हर उड़ान, हर यूनिट की जरूरत, हर हमले की योजना—सब पर उनकी नजर थी। जब पाकिस्तान ने हथियार डाले, वे शिलांग में पूर्वी सेक्टर में थे।दिल्ली कैंट में उनके नाम की एक सड़क है।
लतीफ साहब का देश के पहले गणतंत्र दिवस से भी खास रिश्ता था। 1950 में स्क्वाड्रन लीडर लतीफ ने हॉक टेम्पेस्ट विमानों की टुकड़ी के साथ पहला फ्लाई-पास्ट किया। देश पहली बार आसमान में कलाबाजियां देखकर मंत्रमुग्ध हो गया था। उन्होंने 1948, 1965 की जंगें भी लड़ीं और एयरफोर्स चीफ रहते जगुआर विमानों की खरीद करवाई।
साउथ दिल्ली के आनंद निकेतन में एक घर है, जहां रोज 1971 के सबसे युवा परमवीर चक्र विजेता की बात होती है- सेकंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल। मात्र 21 साल की उम्र में उन्होंने शकरगढ़ सेक्टर में दुश्मन के 10 टैंक नष्ट कर दिए। उनके पिता भी उसी जंग में लड़ रहे थे। 16 दिसंबर 1971 को उनका टैंक जल गया, लेकिन उनकी टुकड़ी इतनी प्रेरित हुई कि दुश्मन पर टूट पड़ी और विजय हासिल की। लोग उन्हें “शकरगढ़ का शेर” कहते हैं। नोएडा का अरुण विहार उनके नाम पर है।
आनंद निकेतन का घर उनके पिता ने बनवाया था। आज उनके छोटे भाई परिवार के साथ यहीं रहते हैं और रोज अरुण की यादें ताजा करते हैं। जल्द ही उनकी जिंदगी पर फिल्म “इक्कीस” रिलीज हो रही है। श्रीराम राघवन निर्देशित यह फिल्म सबसे कम उम्र के परमवीर चक्र विजेता की प्रेरणादायक कहानी है।
जैकब की रणनीति ने लिखी इतिहास RK पुरम के सोम विहार में एक घर के ड्राइंग रूम में वह ऐतिहासिक फोटो टंगी है—जनरल जे.एफ.आर. जैकब मुस्कुराते हुए खड़े हैं, सामने लेफ्टिनेंट जनरल नियाजी आत्मसमर्पण के कागज पर साइन कर रहे हैं। यहूदी समुदाय के जनरल जैकब की रणनीति ने पूर्वी मोर्चे पर चमत्कार कर दिखाया।
उन्होंने नियाजी को सिर्फ आधे घंटे का समय दिया था— या तो 90,000 सैनिकों समेत आत्मसमर्पण करो, या...। नतीजा सबके सामने है।आज जनरल जैकब हुमायूं रोड के यहूदी कब्रिस्तान में आराम फरमा रहे हैं। उनका घर अब भी सोम विहार में है।
उनकी वेबसाइट पर लिखा है कि 1965 की जंग में उन्होंने भारत का एक लड़ाकू विमान, 15 टैंक और 12 वाहन नष्ट किए। उन्हें “सितारा-ए-जुर्रत” मिला। 28 फरवरी 2008 को दिल्ली में उनकी किताब “Three Presidents and an Aide” का लोकार्पण हुआ। पूर्व प्रधानमंत्री आई.के. गुजराल, कैप्टन अमरिंदर सिंह समेत तमाम दिग्गज मौजूद थे। उन्होंने भारत-पाक दोस्ती की बात की, जंग की बात टाल दी। जब वे कैंसर से जूझ रहे थे, अदनान सामी उन्हें मुंबई के कोकिलाबेन अस्पताल लाए। भारत ने उन्हें पूरा सम्मान दिया।
क्या हमारा दिल इतना बड़ा है कि हम दुश्मन के योद्धा को भी अपना मेहमान मान लें? क्या अरुण खेत्रपाल की फिल्म “इक्कीस” कभी पाकिस्तान के सिनेमाघरों में लगेगी? इन सवालों का जवाब शायद समय देगा। लेकिन आज विजय दिवस पर बस इतना याद रखिए— उन शूरवीरों को भूलना नहीं, जिन्होंने पाकिस्तान के गले में अंगूठा डाला और भारत का मस्तक ऊँचा किया।