मानवीय गुणों की जिज्ञासा करते हुये महर्षि वाल्मीकि ने पूछा है कि विद्वान कौन है। इसके उत्तर में श्रीराम का नाम बताते हुए नारद जी उनके वैदुष्य का प्रतिपादन किया है। गुरु वशिष्ठ की सन्निधि में जाकर विद्याध्ययन करते हुए श्रीराम ने अल्प समय में ही विद्या ग्रहण करके अपनी मेधा का परिचय दिया, तो मुनि विश्वामित्र की यज्ञरक्षा करते हुए दिव्यास्त्रों का सन्धान करने और मायावी असुरों को मारने में भी श्रीराम की असाधारण विद्वत्ता प्रत्यक्ष हुई। उनका यह ज्ञान केवल शस्त्रों तक सीमित नहीं है बल्कि शास्त्रों के तात्पर्य समझने और कत्र्तव्य चुनने में भी उसका अनूठा उपयोग दिखाई देता है।
महर्षि जाबालि के द्वारा नास्तिक मत के तर्कपूर्ण प्रतिपादन और अयोध्या की गद्दी ले लेने की प्रेरणा करने पर श्रीराम न केवल उनके कथनों का युक्तिपूर्ण खण्डन करते हैं बल्कि धर्म की मौलिक अवधारणा को भी व्यक्त करते हैं। हनुमान जी से प्रथम संवाद में वाणी मात्र से उनके चारित्रिक गुणों को पहचान कर श्रीराम लक्ष्मण से कहते हैं कि ‘ चारों वेदों को जाने बिना, व्याकरण शिक्षा आदि शास्त्रों का सम्यक् अध्ययन किए बिना कोई ऐसा संवाद नहीं कर सकता।’
बाली के मरने पर शोक करती तारा को समझाकर उसका शोक दूर करते हुए श्रीराम के कथन मननीय हैं। वे कहते हैं कि तुम किसके लिए शोक करती हो। यदि पंचतत्वों से बने शरीर का शोक है तो वह तुम्हारे सामने सोया हुआ है और यदि जीव के लिये शोक है तो वह नित्य होने से मर ही नहीं सकता, अत: शोक का क्या कारण है। सरल भाषा में कही गयी यह बात आत्मज्ञान के उस सूत्र को व्यक्त करती है, जिसे जन्म और मृत्यु का आग्रह शिथिल हो जाता है। भक्ति, ज्ञान और योग सर्वत्र स्वरूप का बोध कराकर शोक मुक्त कर देता है। श्रीराम उसका उपदेश तो करते ही हैं , अपने आचरण से भी उसको बारम्बार प्रामाणित करते हैं।