उज्जवल बनाए वह तप कहलाता है
उज्जवल बनाए वह तप कहलाता है
बेंगलूरु. गणेशबाग में 21 दिवसीय श्रीमद् उत्तराध्ययन श्रुतदेव की आराधना में उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि ने कहा कि केवल मुक्ति और मुक्ति का मार्ग ही पर्याप्त नहीं है। मोक्ष मार्ग पर चलते समय गति भी होना चाहिए। बंधनों की अनुभूति जब होती है तो मुक्ति की कामना अंतर में जागृत होती है। मुक्ति की अनुभूति के लिए कई लोगों का कहना है ज्ञान-श्रद्धा-क्रिया पर्याप्त है लेकिन परमात्मा कहते हैं कि ज्ञान-श्रद्धा-चरित्र-तप-वीर्य (शक्ति) इन पांचों का जब समन्वय होता है जब मोक्ष मार्ग में गति मिलती है।
ये पांचों कैसे प्राप्त हो इसका प्रभु महावीर ने निर्वाण कल्याणक देशना में फरमाते हुए कहा कि जिससे भाव को जाना जाए वो ज्ञान है, जो है, उसको जो जानता है वो ज्ञान है, जो नहीं है उसको जो जानता है वह अज्ञान है। ज्ञान में उजाला है अज्ञान में अंधियारा है। जो श्रद्धा से उन भावों की शक्ति को जानता है अर्थात जिसके कारण से उन भावों में जो ऐश्वर्य है वह ग्रहण करना या धारण करना उसको श्रद्धा कहते हैं। श्रद्धा परम दुर्लभ है श्रद्धा में ही अस्तित्व है। जैसी श्रद्धा होती है वैसी अनुभूति होगी, जैसी अनुभूति होगी वैसा जीवन होगा और जैसा जीवन वैसा भविष्य बनता है। यहां मान्यता को श्रद्धा नहीं कहा गया है। श्रद्धा प्राप्ति के मार्ग बताए गए हैं। यथा पहला नैगर्गिक रुचि अर्थात जिसको जीव-अजीव-पाप-पुण्य-संवर-निर्जरा-मोक्ष आदि का बोध हो जाए एवं बिना किसी के समझाए जिसके समझ में आ जाता है उसे प्राकृतिक श्रद्धा व नैसर्गिक कहा जाता है। दूसरा उपदेश रुचि-जिसे सुनकर के बोध हो जाए, नव तत्व पर आस्था हो जाए। तीसरी-आज्ञा रुचि-जिसको आज्ञा पालन में आनंद आ जाए उसे श्रद्धा प्राप्त हो जाती है। ये रुचि उसे ही प्राप्त होती है जिसे गुरु को लेकर राग-द्वेष-मोह चला जाए। चौथा आगम रुचि-जिसे आगम शास्त्रों से बोध प्राप्त होता हो। पांचवा-बीज रुचि का अर्थ है जैसे पानी में तेल की बूंद डालते हैं और तेल फैलता चला जाता है।वैसा ही उसका ज्ञान फैलता जाता है। छठा अवगिम रुचि-जो पूरे विस्तार से जानता है उसे अविगम रुचि कहते हैं। जो दर्शन-श्रद्धा-ज्ञान-चरित्र-विनय-सत्य-समिति-गुप्ति की क्रिया करते करते भी श्रद्धा की प्राप्ति हो जाती है इसे कहते हैं क्रिया रुचि। और कुछ लोग होते हैं जिन्होने फालतु की बातों को ग्रहण नहीं किया है गलत बातों को भी ज्यादा पकड़कर नहीं रखा है। लेकिन मन में एक भाव है कि ये परमात्मा ने कहा है वो सही है इसे कहते है संक्षेप रुचि। इस रुचि के बल पर ही अधिकतम धर्म संघ चलते हैं।
चरित्र को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि जिसके कारण से जो इष्ट है, अभिदेह है, जिसको हम चाहते हैं उसके अतिरिक्त जो कुछ हैं उनसे मुक्त होकर सिद्धि का लक्ष्य निर्णायात्मक ग्रहण करना एवं जो बोझ मुक्त कर दे इससे चरित्र जाता ही नहीं है या तप उसे कहा जाता है जिसके कारण से मन-वचन-काया शुद्ध हो जाए, जिसके कारण से ज्ञान-श्रद्धा और चरित्र में आया हुआ कचरा साफ हो जाए और उज्जवल बनाए वह तप कहलाता है तथा इन सभी को जो उल्लास से प्राप्त करता है वह वीर्य (शक्ति) कहलाती है। उपाध्याय प्रवर ने कहा कि मोक्ष में जाना हो तो 9 तत्वों का ज्ञान जरूरी है और विश्व को समझना हो तो 6 द्रव्यों को समझना जरूरी है। साधना के मार्ग पर कदम रखना हो तो तीन तत्व देव-गुरू और धर्म जरूरी है। इनमें पूरा जैनिज्म समाया हुआ है।