वरिष्ठ शिशु रोग चिकित्सक डॉ. राकेश मिश्रा के मुताबिक एसएनसीयू में आने वाले अधिकतर बच्चे प्री मैच्योर व कम वजन के होते हैं। संक्रमण व अन्य तकलीफ के चलते उन्हें कम से कम 21 दिन तक एंटीबायोटिक देना होता है। इसके अलावा कुछ बच्चों को जन्म के साथ ही सांस लेने में तकलीफ (बर्थ एक्सफेक्सिया) होती है। इन बच्चों का भी लंबे समय तक इलाज चलता है। ऐसे में यदि इलाज बीच में छोड़ दिया जाए तो बच्चों को गंभीर दिक्कतें हो सकती हैं। हमीदिया के शिशु रोग विभाग के डॉक्टरों ने बताया कि प्री मैच्यौर बच्चों को एक किलो 800 ग्राम वजन हो जाने तक रखा जाता है। लेकिन आमतौर पर बच्चे का वजन जैसे ही करीब 1200 या 1400 ग्राम होता है तो परिजन उसे लेकर चले जाते हैं।
विभाग की प्रमुख शशु रोग विशेषज्ञ डॉ. ज्योत्सना श्रीवास्तव बताती हैं कि शुरू में नवजात बच्चों को एसएनसीयू में रखा जाता है। तबीयत में सुधार होने पर उन्हें वार्ड में शिफ्ट कर दिया जाता है। ऐसे में परिजनों को लगता है कि बच्चा ठीक हो रहा है और हम उसे जबरन यहां रखे हुए हैं। ऐसे में वे बच्चों को लेकर चले जाते हैं। नवजात की जिंदगी खतरे में रहती है। बीच में इलाज छोडऩे से उसका संक्रमण बढ़ सकता है। साथ ही निमोनिया, डायरियां, सांस में तकलीफ, फेफ ड़े में संक्रमण व अन्य बीमारियां हो सकती हैं।
जेपी अस्पताल के एसएनसीयू में भर्ती नवजात की मां के रुकने के लिए अलग से मदर वार्ड बनाया गया है। बच्चा जब तक अस्पताल में रहता है तब तक मां भी यहां रह सकती है, जिससे यहां पर लामा (लीव अगेंस्ट मेडिकल एडवाइस) केस बहुत कम हैं।
दो वेंटीलेटर खराब : अस्पताल में हर रोज 30 से 35 बच्चों को भर्ती करना पड़ता है। लेकिन व्यवस्थाओं की कमी के चलते कई बार बच्चों को इलाज नहीं मिल पाता। यहां 14 वेंटीलेटर है जिनमें से दो खराब हैं। ऐसे में वेंटीलेटर की कमी के कारण बच्चों को उपयुक्त इलाज नहीं मिलता।
दवाओं की कमी : अस्पताल में कई बार बच्चों के लिए पैरासीटामॉल सिरप तक नहीं मिलता ऐसे में परिजनों से बाहर से दवाएं लाने को कहा जाता है। अस्पताल में आने वाले परिजन अक्सर ग्रामीण क्षेत्रों से आते हैं जो बाजार से दवाएं नहीं ले पाते।
10970 बच्चे भर्ती किए गए बीते साल 30 से 35 बच्चे हर रोज होते हैं भर्ती 760 बच्चे बिना बताए हो गए गायब