भोपाल। ओशो के फॉलोवेर्स 21 मार्च को संबोधि दिवस के रूप में मनाते हैं। इसे वो मोक्ष या मुक्ति की शुरुआत मानते हैं। देश विदेश में फैले ओशो फॉलोवेर्स के लिए ये खास दिन होता है। कहते हैं 1953 में 21 मार्च को एक विशेष वृक्ष मौलश्री के नीचे ओशो को संबोधि प्राप्त हुई। पूरी दुनिया में जहां भी ओशो धाम है वहां इस दिन विशेष कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है। हम आपको ओशो से जुड़े कुछ विवाद बता रहे हैं जो खुद उनकी शिष्या और प्रेमिका रही मा शीला आनंद ने लगाया था।
अपने अनुयायियों में भगवान ओशो के नाम से मशहूर ओशो का विवादों से पुराना नाता रहा है। वो कहा करते थे कि, सेक्स के चरम भोग के बाद ही व्यक्ति को इससे ऊब होगी और उसके बाद ही उसे ज्ञान मिलेगा। दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर के रूप में अपने जीवन की शुरुआत करने वाले ओशो के पास भाषण की अद्भुत कला थी।
ओशो अपनी अंग्रेज अटेंडेंट के साथ
ओशो के साथ लंबे समय तक रहीं आनंद शीला ने ओशो के ऊपर लिखी किताब में उन पर कई गंभीर आरोप लगाए हैं। अपनी किताब डोंट किल हिम में उन्होंने लिखा है कि, ओशो ने अपनी अटेंडेंट क्रिस्टीन वूल्फ के साथ लंबे समय तक जिस्मानी रिश्ता रखा और बाद में उन्हें प्रेग्नेंट कर दिया।
शीला लिखती हैं, ब्रिटिश नागरिक क्रिस्टीन को ओशो विवेक नाम से पुकारते थे। उन्होंने उसका नाम ही विवेक रख दिया था। जिस्मानी रिश्ते के बाद जब विवेक गर्भवती हो गई तो ओशो ने उसका गर्भपात करवा दिया और नसबंदी करवा दी। जबकि क्रिस्टीन बच्चे को जन्म देकर ओशो को सबक सिखाना चाहती थी।
ओशो ये नहीं चाहते थे कि उनके आश्रम में अनगिनत बच्चे जन्म लें इसके लिए उन्होंने पुणे में अपने आश्रम की स्थापना की और वहां गर्भपात और नसबंदी को खुला बढ़ावा दिया। ओशो ने आश्रम के सभी अहम लोगों को नसबंदी करवाने को कहा था । एक इंटरव्यू के दौरान आनंद शीला ने ये बताया है कि ओशो कई बार एक दिन में अपने आश्रम की तीन अलग-अलग संन्यासिनों के साथ सेक्स किया करते थे।
ओशो का पहला नाम चंद्रमोहन जैन, आचार्य रजनीश, फिर भगवान रजनीश और अंत में ओशो नाम पड़ा। भगवान ओशो को ड्रग्स लेने की आदत थी। शीला ने अपनी किताब में लिखा है कि ओशो को ड्रग्स की इतनी जबर्दस्त लत थी कि उन्होंने 15 अलग-अलग नाम से (फर्जी) मेडिकल फाइलें बनवाई थी। ओशो इनकी मदद से वेलियम और मेप्रोबेमेट जैसे नशीले पदार्थ का सेवन करते थे।
आनंद शीला आगे लिखती हैं कि जब ओशो की लोकप्रियता बहुत ज्यादा हो गई थी और विदेशी बहुत ज्यादा संख्या में पुणे के आश्रम में पहुंचने लगे, तो ओशो ने भारतीय अनुयायियों से पीछा छुड़ाने के लिए हिंदी छोड़कर अंग्रेजी को तवज्जो देना शुरू कर दिया। इसके अलावा उन्होंने अपनी स्पीच सुनने वालों से अधिक फ़ीस लेनी भी शुरू कर दी थी।