स्वभाव में यदि उदासीनता, दुख या चिंता रहे तो यह तनाव की ओर जाने का इशारा हो सकता है। ऐसे में लंबे समय से तनाव की स्थिति धीरे-धीरे डिप्रेशन का रूप लेने लगती है। जिसमें व्यक्ति की सोच जरूरत से ज्यादा नकारात्मक हो जाती है। इस दौरान शरीर के कई हार्मोन्स का स्तर बढ़ता जाता है। खासतौर पर एड्रिनल और कार्टिसोल का। इससे रोजमर्रा की जिंदगी पर असर होता है।
– लगभग हर दिन, उदासी का दौर महसूस करना।
– पहले की तरह दिनचर्या के कार्यों में रुचि नहीं हाेना।
– फैसला लेने और एकाग्रचित्त होने में कठिनाई महसूस होती है।
– छोटी-छोटी बातों में चिड़चिड़ापन, बेचैनी, उत्तेजना होने के अलावा खुद को बेहद दोषी, लाचार, निराशावादी, असहाय, निकम्मा समझना व भविष्य के लिए नकारात्मक दृष्टिकोण या लगातार असफलता के विचार आना।
– बार-बार आत्महत्या या स्वयं को हानि पहुंचाने वाले विचार मन में आना।
वजन या भूख में बहुत ज्यादा बदलाव आया है?
लक्षण दो हफ्ते या ज्यादा समय से हैं तो अवसाद से ग्रस्त हैं।
– स्वयं के लिए कठिन लक्ष्य तय न करें। ज्यादा जिम्मेदारी न लें।
– अत्यधिक जल्दबाजी में काम न करें। एक बार में एक ही तनावमुक्तकार्य हाथ में लें। बड़े कार्यों को छोटे-छोटे कार्यों में विभाजित करें। प्राथमिकता तय करें व जिस समय में जो कार्य कर सकते हों, वही कार्य करें।
– दैनिक कार्यों के बीच अवकाश जरूर लें। दिनचर्या सीमित करें।
– महत्त्वपूर्ण निर्णय जैसे नौकरी बदलना, शादी करना या तलाक लेना आदि में परिवार व शुभचिंतकों की सलाह लें। वे परिस्थिति का वास्तविक मूल्यांकन करते हैं।
– डिप्रेशन से धीरे-धीरे बाहर आएं। तत्काल मनोदशा में सुधार न आए तो निराश न हों। स्वस्थ होने में समय लगता है।
– नकारात्मक सोच को सकारात्मक करें। अकेले न रहें और रोग के लक्षणों को रोजाना डायरी में लिखें।
इंटरपर्सनल थैरेपी, बिहेवरल व कॉग्नेटिव थैरेपी के साथ एंटीडिप्रेसेंट दवाएं देते हैं। परिजन रोगी की मनोदशा समझकर सपोर्ट करें। उसे बीमारी का बहाना दिखाने का दोष न दें।