अगर हम हमेशा बच्चों पर अपनी पसंद थोपते रहेंगे तो वह काम करने में उन्हें मजा नहीं आएगा। अगर बच्चे अपना चुना हुआ काम करेंगे तो उसे मन से कर सकेंगे। इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें एकदम उनकी मर्जी पर छोड़ दें। अभी वे इतने परिपक्व नहीं। दरअसल हमें उन्हें कुछ विकल्प देने हैं जिनमें से वे अपने सबसे पसंद के विकल्प का चुनाव कर सकें। इससे यह होगा कि उन्हें लगेगा कि वे अपनी मर्जी का काम कर रहे हैं। फिर वे मन से उस काम को करेंगे। जैसे उनसे पूछा जाए कि वे किस तरह अपना खाली समय बिताना पसंद करेंगे या छुट्टियों में कहां जाना चाहेंगे। ऐसे में उन्हें स्वायत्ता की भावना महसूस होगी। स्कूल-कालेजों में भी इस बात का ध्यान रखना होगा कि उन्हें विकल्प दिए जाएं।
छात्रों का जीवन अक्सर पेपर वर्क, टू-डू लिस्ट बनाना, कामों को प्राथमिकता के साथ निपटाना, भटकावों को संभालना और अपने काम व पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करने जैसी गतिविधियों के इर्द-गिर्द घूमता है। ये सभी रोज के जरूरी काम हैं, जिन्हें व्यवस्थित तरीके से करना जरूरी है। स्कूल के बाद अच्छे कॉलेज में जाने, अच्छे नंबर लाने का दबाव उन्हें पढऩे और मेहनत करने के लिए प्रेरित तो करता है, मगर इससे प्रतियोगिता की भावना उनमें जरूरत से ज्यादा भी आ जाती है। अगर उन्हें उनकी योग्यता के मुताबिक क्लासेज लेने दी जाएं और उनमें रोज की अच्छी आदतें डाली जाएं तो उनमें आत्मविश्वास बढ़ता है और सदृढ़ भविष्य की नींव पड़ती है।
बच्चों को अपनी रुचियों का विकास करने दें। स्कूल से बाहर भी उन्हें योग्यता साबित करने दीजिए। कुछ बनने की उनकी इच्छा को बढ़ावा दीजिए। आज बच्चे पढ़ाई-लिखाई में इतने व्यस्त हैं कि उस चीज को ढूंढ़ ही नहीं पा रहे, जिसे करना उन्हें सबसे ज्यादा अच्छा लगता है। दूसरी दिक्कत यह है कि ऑनलाइन मिल रही जरूरत से ज्यादा सामग्री में वे उलझ जा रहे हैं। हमें सुनिश्चित करना होगा कि वे अपनी रुचियां, योग्यताएं और प्रतिभा को तलाशें व तराशें।
बना रहे जुड़ाव
बच्चों में कभी अलगाव की भावना न पनप पाए। घर हो, स्कूल हो, कोचिंग क्लास या आस-पास रहने वाले लोग। जरूरी है कि बच्चे सबसे मिले-जुलें और उनका आपस में एक समूह हो। एक समूह के रूप में बच्चे उन साथियों से जुड़ें, जिनसे उन्हें अपनापन महसूस होता है। उन्हें प्रोत्साहित करें कि उन साथियों से भी बात करें, जिनसे अभी तक उनकी बातचीत नहीं है। इससे वे न केवल सामाजिक तौर पर सक्रिय होंगे, बल्कि बहुत कुछ सीखेंगे भी। भविष्य में उनके लिए संभावनाओं का संसार खुल जाएगा।
अगर बच्चे खुद कोई लक्ष्य बनाते हैं तो उस पर ज्यादा अमल करते हैं। परीक्षाओं को लेकर या पूरे साल को लेकर उनकी रणनीति लक्ष्य-निर्धारण की होनी चाहिए कि उन्हें प्रेरणा मिलती रहे। अपने लक्ष्य खुद निर्धारित करने के लिए बच्चों में उत्साह डालिए। वे खुद तय करें कि किसी परीक्षा में वे कितने अंक लाएंगे या कितने समय में अपनी कौन-सी बुरी आदत छोड़ेंगे। जो लोग एक साफ लक्ष्य लेकर चलते हैं, उन्हें अपना काम बोझ नहीं लगता।