
कमलाताल ने 30 बरस पहले जब दुकान शुरू की थी तब 50 पैसे में एक इडली बेचती थीं। करीब 10 साल पहले उन्होंने इसकी कीमत बढ़ाकर 1 रुपए कर दी। कमलाताल कहती हैं कि कई लोगों ने महंगाई को देखते हुए कीमत बढ़़ाने के लिए कहा लेकिन उन्होंने मना कर दिया क्योंकि ग्राहकों में अधिकांश दिहाड़ी मजदूर और स्कूली बच्चे हैं।
कमला कहती हैं कि वे इस उम्र में भी इसलिए काम करती हैं कि ताकि उन पर विश्वास करने वाले स्कूली बच्चों और श्रमिकों को निराशा नहीं हो। बढ़ती उम्र को देखते हुए परिवार के लोग कई बार उन्हें दुकान बंद करने के लिए कह चुके हैं लेकिन वे कहती हैं कि जब तक शरीर साथ दे रहा है तब तक वे काम करती रहेंगी। कमलाताल कहती हैं कि उन्हें इन लोगों के लिए खाना बनाकर खुशी मिलती है और इससे मुझे में स्फूर्ति भी बनी रहती है। ग्राहकों की मांग पर कमलाताल ने ही हाल में ही ऊलंदू बोंडा (उड़द की दाल का पकौड़ा) भी बनाना शुरू किया है जिसे वे 2.50 रुपए प्रति नग बेचती हैं।
कमलाताल बताती हैं कि पति की मौत के बाद उनके पास कोई काम नहीं था। घर के लोग खेतों पर काम करने चले जाते थे और वे अकेली होती थीं। खुद को व्यस्त रखने के लिए उन्होंने सुबह के समय घर में ही इडली बनाकर बेचने का काम शुरू किया। बाद में यह काम काफी चलने लगा। सिर्फ दोपहर तक ही दुकान चलाने वाली कमलाताल की दिनचर्या सूर्योदय से पहले ही शुरू हो जाती हैं। नित्य कर्मों और पूजा-पाठ से निवृत्त होने के बाद खेत से ताजी सब्जियां लाती हैं। सब्जियों को काट कर सांबर बनाने के लिए चढ़ा देती हैं और फिर खलबट्टे (ओखली-मूसल) पर चटनी पीसती हैं। सुबह आठ बजे उनकी दुकान खुल जाती है। वे बिना किसी मशीनी सहयोग के आज भी परंपरागत तरीके से इडली-सांबर-चटनी बनाती हैं।

कमलाताल दुकान का पूरा काम अकेले करती हैं। कमला के पास एक तीन स्तरीय इडली मेकर हैं जिसें एक बार में 36 इडली बनती है। चटनी रोज बदलती है लेकिन वे कई सब्जियों से मिश्रित सांबर ही बनाती हैं ताकि वह पौष्टिक हो। यहां इडली सौगान या केले के पत्ते पर परोसी जाती है।