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दो शहरों की मानसिकता में जमीन आसमान करा अंतर
एक तरफ गुजरात के सूरत में बीते दो महीनों के अंदर कोरोना संक्रमण से ठीक हुए लोगों ने प्लाज्मा थैरेपी के लिए इतना प्लाज्मा दान किया कि, वो उनकी जरूरत से कई ज्यादा इकट्ठा हो गया, जिसके कारण कई डोनरों को तो ब्लड बैंकों ने प्लाज्मा लेने से ही इंकार करना पड़ा। वहीं, दूसरी तरफ इसके उलट इंदौर में ये स्थिति है कि, संक्रमण से ठीक होकर घर लौटने वाला व्यक्ति दोबारा अस्पताल ही नहीं आ रहा, एक्सपर्ट्स कहते हैं कि, इसके पीछे की बड़ी वजह उनके भीतर बीमारी को लेकर बना डर है। इंदौर में अब तक कोरोना के 10 हजार 719 मरीज ठीक होकर अपने घर लौट चुके हैं, लेकिन अब तक उनमें से सिर्फ 302 लोग प्लाज्मा डोनेट करने अस्पताल आए हैं। प्लाज्मा को लेकर स्थिति ये है कि, अस्पताल के स्टॉक में ‘A’ और ‘AB’ ग्रुप है ही नहीं।
शहर में दो प्लाज्मा बैंक, ये है उनकी स्थिति
बता दें कि, इंदौर में दो प्लाज़्मा-बैंक हैं। जानकारी के अनुसार, शहर के एमवायएच के ब्लड बैंक में अब तक 102 लोग प्लाज्मा डोनेट करने पहुंचे हैं। उनमें से 68 यूनिट का इस्तेमाल कोरोना संक्रमित मरीजों पर किया जा चुका है। वहीं, अरबिंदो कोविड अस्पताल में अब तक 200 लोगों ने प्लाज्मा डोनेट किया है, जिससे 375 मरीजों का उपचार हो सका है। डॉक्टर्स रोजाना रक्त-दाता का इंतजार कर रहे हैं। फोन लगा रहे हैं, लेकिन कोई नहीं आ रहा। आंकड़ों पर गौर करें तो प्लाज्मा-डोनेशन करने आने वालों की संख्या बेहद कम बहुत कम है, जो उपचार करने वाले चिकित्सकों की परेशानी का सबब बना हुआ है।
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दोबारा अस्पताल आने से बच रहे लोग
एमजीएम मेडिकल कॉलेज के ब्लड बैंक डायरेक्टर डॉ. अशोक यादव के मुताबिक, डोनेशन के लिए कुछ उच्च शिक्षित लोग ही आगे आए हैं। डॉक्टर्स, आईपीएस, पत्रकार सहित शिक्षित वर्ग ही डोनेशन के लिए आगे आया है। ज्यादातर मरीज ठीक होने के बाद दोबारा अस्पताल आने से परहेज कर रहे हैं। कहीं, दोबारा संक्रमण की चपेट में नहीं आ जाएं, इसलिए वो प्लाज्मा डोनेट करने नहीं आ रहे। बीमारी से उबरने वाले लोगों में से हम रोजाना 40 से 50 लोगों को फोन करते हैं, पर नतीजे सिफर ही सामने आ रहे हैं।
अप्रैल में हुआ था पहला ट्रॉयल
इंदौर में सबसे पहले अप्रैल में सेम्स में प्लाज्मा थैरेपी इसे शुरू किया गया था। तब से लेकर अब तक 375 मरीजों को यह दी जा चुकी है। यहां के पैथोलॉजिस्ट डॉ. सतीश जोशी कहते हैं कि प्लाज्मा थैरेपी इलाज का बहुत कारगार तरीका है। इसके परिणाम अच्छे देखे गए हैं। अस्पताल से डिस्चार्ज होने वाले सभी मरीजों से अपील कर रहे हैं कि वे 14-15 दिन बाद अस्पताल आए। हम पहले उनकी एंटीबॉडी जांच कर रहे हैं। वे कहते हैं कि मरीजों की तादाद बढ़ रही है, ऐसे में यदि ज्यादा लोग प्लाज्मा डाेनेट करेंगे तो अन्य मरीजों को फायदा होगा।
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अब इलाज़ के रूप में शुरु हुई प्लाज़्मा थैरेपी
इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) देशभर में कई केंद्रों पर प्लाज्मा थैरेपी को ट्रायल के रूप में शुरू किया था। मप्र में पांच मेडिकल कॉलेजों में यह ट्रायल चल रहे हैं। जिसमें से दो इंदौर के हैं। यह ट्रायल छह माह की अवधि तक चलेंगे। इसके बाद बतौर ट्रायल इसे बंद कर दिए जाएंगे। हालांकि, अरबिंदो अस्पताल और एमजीएम मेडिकल कॉलेज में इसका ट्रायल पूरा हो चुका है। वहां इलाज़ के रूप में इस थैरेपी का इस्तेमाल किया जा रहा है।
जानिए क्या है ये प्लाज्मा थैरेपी
माना जाता है कि, बीमारी से ठीक होकर घर जा चुके मरीजों के शरीर में वायरस से लड़ने के मुताबिक एंटीबॉडी उत्पन्न हो जाती है। अगर ये एंटीबॉडी किसी अन्य गंभीर कोरोना संक्रमित मरीज को दी जाए तो उसका शरीर भी संक्रमण से लड़ने की क्षमता विकसित कर लेता है और जल्दी ही बीमारी से उबर जाता है। इसलिए बीमारी को हराकर घर जा चुके लोगों का प्लाज्मा लिया जा रहा है। हालांकि, ये इलाज नहीं है, लेकिन इससे बढ़िया इलाज का विकल्प भी अब तक मेडिकल साइंस के पास नहीं है। प्लाज्मा थैरेपी की मदद से किसी संक्रमित मरीज को ठीक भी किया जा सकता है और प्लाज्मा दान करने वाले व्यक्ति कोबाद में किसी भी तरह की समस्या नहीं आती। ऐसे में प्लाज्मा डोनेट करने वाले लोगों का डर निराधार है।