
गोगी सरोज पाल
सन् 1945 में लखनऊ में जन्मी गोगी सरोज पाल की गिनती प्रतिष्ठित समकालीन चित्रकारों में की जाती है। भारतीय स्त्री के प्रति भेद-भाव को उन्होंने चित्रों के जरिए खास अंदाज में अभिव्यक्त किया है। देश-विदेश में अब तक 50 से ज्यादा एकल और 150 से ज्यादा समूह प्रदर्शनियों में भागीदारी दे चुकी गोगी के 'बीइंग ए वीमेन', 'हठयोगिनी', 'कामधेनु', 'किन्नरी', 'आग का दरिया' शृंखलाओं की कलाकृतियां आज देश-दुनिया के प्रसिद्ध संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रही हैं। 'जयपुर आर्ट समिट' की सलाहकार सुप्रसिद्ध चित्रकार गोगी सरोज पाल से हाल ही बात की अभिषेक कश्यप ने। प्रस्तुत है बातचीत के अंश -
आपने अपनी कला-यात्रा के शुरुआती दिनों की चर्चा करते हुए कहा था कि संयोजन आदि तो बहुत सीख लिया था लेकिन एक कलाकार के रूप में महसूस होता था कि कला में प्राण, भाव-संवेग गायब हैं...
जब मैंने दिल्ली आकर आर्ट कॉलेज में दाखिला लिया तो मैं घंटों मॉडल के साथ बैठी अपना काम करती रहती थी। मुझो लगता था, जब हम मॉडल को पेंट कर रहे हैं तो हमारे लिए केतली हो या औरत, एक ही बात है। उससे हम 'इमोशनली रिलेट' नहीं कर पाते। दो मॉडल थे। एक छोटी, एक बूढ़ी। मैं बूढ़ी मॉडल की बात कर रही हूं। शरबती नाम था उसका। मैं उस मॉडल से बात करने लगी। उसने मुझो बताया कि पहले वह वेश्या थी! धीरे-धीरे मेरा उससे एक संबंध बना और मैंने खुद को उससे 'इमोशनली रिलेट' करते हुए एक कलाकार के रूप में व्यक्ति और स्टिल लाइफ के फर्क को महसूस किया। अब सवाल यह था कि शरबती का चित्र कैसे बनाया जाए? एक प्रचलित तरीका तो यह है कि उसे रियलिस्टिक तरीके से पेंट किया जाए। दूसरा तरीका है कि उसमें अपनी तरह से प्राण फूंके जाएं, जो 'फोटो रियलिज्म' से अलग हो। तो कलाकार के लिए यह एक बहुत बड़ा संघर्ष है।
कई कलाकार एक साथ कई कैनवस पर काम करते हैं।
जब तक एक काम पूरा नहीं होता, मैं आगे नहीं बढ़ती। मेरे लिए पेंटिंग एक स्टेटमेंट है। मैं ओवर स्टेटमेंट भी नहीं देना चाहती, फिर वह पोस्टर बन जाएगा। मैं उसे 'पेंटरली' ही करना चाहती हूं। मेरे लिए पेंटिंग वह है जो सोचने के लिए 'प्रोवोक' तो करे, सुझााव भी दे लेकिन समाधान दर्शक/प्रेक्षक खुद अपने-अपने तरीके से ढूंढ़ सकें, ऐसी संभावना बची रहे।
आपने पेंटिंग के अलावा सिरेमिक, पॉटरी, आदि कई माध्यमों में काम किया है। इसकी शुरुआत कैसे हुई?
शुरुआत सहज ही हुई। जैसे आर्ट कॉलेज के सिरेमिक विभाग में गई तो देखा, थोड़ी-सी क्ले बच गई है। उससे कुछ बनाना शुरू कर दिया। मेरे हाथ चलते रहने चाहिए। कुछ करते रहने से मुझो सोचने में भी मदद मिलती है।
अनगिनत पुरुष कलाकारों ने निर्वस्त्र औरतों को चित्रित किया है और आपने भी। औरत जब न्यूड फीमेल बॉडी पेंट करती है तो उसके पीछे कोई खास 'स्त्री-दृष्टि' सक्रिय हो सकती है?
देखिए, मेरे लिए देह सिर्फ देह है-कपड़ों से ढकी देह और बगैर कपड़ों की देह। यह देह पुरुष और स्त्री की होती है और जानवर की भी। यह देह जब कपड़ों से ढकी होती है, गहनों से ढकी होती है तो किसी क्लास का संकेत देती है जबकि एक नंगी देह 'आम देह' है। सवाल यह है कि आप उसमें क्या असहज ढूंढ़ रहे हैं? जैसे अमृता शेरगिल...वे स्त्री-देह को लेकर सहज नहीं थीं। उनके चित्रों में स्त्रियों की देह खूब सजी-धजी है, असहज है। मेरे लिए, मेरे चित्रों में औरत होना बहुत सहज हो जाने की प्रक्रिया है, देह पर कपड़ा हो या न हो, यह मायने नहीं रखता।
आप 'जयपुर आर्ट समिट' की सलाहकार और क्यूरेटर हैं। आम तौर पर नामचीन चित्रकार इस तरह की गतिविधियों से दूर रहते हैं।
मेरी दादी प्रेम देवी बहुत आजाद खयालों वाली सुलझाी हुई महिला थीं। वे लाहौर की पहली महिला एजुकेशनिस्ट थीं, जिन्होंने वहां लड़कियों के लिए अनाथालय बनवाया था।
दादी की एक बात मैं आज तक नहीं भूली। मै? जयपुर ?? आर्ट कॉलेज में पढ़ रही थी और मुझो टीचर नहीं बनना था, सो मेरी दादी ने मुझासे एक दिन कहा-'बच्चे, तुम जितनी फीस देकर कॉलेज में पढ़ते हैं, यह समाज उससे बहुत अधिक पैसे तुम्हारी शिक्षा पर खर्च करता है। हमेशा खुद को याद दिलाते रहना कि जो तुमने समाज से लिया, वो वापस किया या नहीं?
'जयपुर आर्ट समिट' से जुडऩा मेरे लिए इसी तरह का एक अनिवार्य सामाजिक दायित्व है।
हमारे यहां आर्ट गैलरी जाकर पेंटिंग देखने का चलन आम नहीं है, चाक्षुश साक्षरता (विजुअल लिटरेसी) का घोर अभाव क्यों है?
यह मामला लोगों की शिक्षा और आर्थिक स्थिति से जुड़ा हुआ है। भूखे लोग पहले रोटी की सोचेंगे न कि कला की। मैं आपको बताऊंं कि पूर्वी यूरोपीय देशों में चित्रों के ग्राफिक प्रिंट बनाने वालों की तादाद बहुत है। वीकेंड में वे ये चित्र फुटपाथ पर बैठ कर बेचते हैं। ये चित्र सस्ते होते हैं और खूब बिकते हैं। वहां हर घर में आपको ओरिजनल काम दिख जाएगा।
Published on:
06 Jan 2018 05:52 pm
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