
patrika
जयपुर. जब एक कवि का हृदय किसी मूर्ति के लिए इतना बेचैन हो उठे कि एक पूरी किताब उसके नाम कर दे, तो यकीनन या तो मूर्ति खास है या फिर कवि, पर किसी एक के खास होने से इतने गहरे शब्द कहां प्रस्फुटित होते हैं, यकीनन दोनों ही खास हैं, यहां मूरत दीदारगंज की यक्षी की है, तो कवि का नाम विनय कुमार है। कवि की एक खूबी यह भी है कि वे कि वे मनोचिकित्सक हैं, पर न जाने मन की पढ़ाई करते हुए, उन्होंने किस किताब से कौनसा अध्याय पढ़ लिया कि मूरत का मन पढऩे लगे।
18 अक्टूबर 1917 का वो दिन...
18 अक्टूबर 1917 का वो दिन जब दीदारगंज में गंगा के किनारे यह मूरत मिली थी, आज बिहार के लिए खास बन चुका है, कला दिवस के रूप में मनाया जाता है यह दिन। बलुआ पत्थर से बनी यक्षिणी की मूरत इतनी खूबसूरत और मनमोहक है कि इसकी प्राप्ति के सौ साल पूरे होने पर बिहार सरकार ने यक्षिणी के सम्मान में 18 अक्टूबर को हर साल बिहार कला दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया।
जब दूर हुई आंखों से...
कवि विनय कुमार ने इस चंवरधारिणाी को सबसे पहले दीदारगंज के संग्रहालय में ही देखा था। कब और कितनी बार उन्हें पता नहीं। कभी-कभी यूं भी होता था कि वे उसके पास से गुजरते, पर अनदेखा कर जाते, पर जब एक रोज खबर आई कि यक्षिणी अब बिहार संग्रहालय जा रही है, तो दिल धक्क से रह गया कवि का।
बात आई गई हो जाती, पर होनी न थी, क्योंकि कविता प्रेमियों को, मूर्तिकला प्रेमियों को और यकीनन इतिहास प्रेमियों को एक खूबसूरत काव्य कृति मिलनी थी ‘यक्षिणी’ के रूप में, जो मिल गई।
ये कविताएं मेरी नहीं...
यक्षिणी की मूरत का एक हाथ नहीं, फिर भी उसके सौंदर्य में मीनमेख निकालना मुनासिब ही नहीं लगता, और कवि! दो आंखों से वे एक नजरिया उधार लेता है और यक्षिणी को इतिहास से उठाकर वर्तमान में ले आता है। अपने लफ्जों का जादू रचने से पहले जैसे प्रतिज्ञास्वरूप कहता है-
ये कविताएं मेरी नहीं
उन लहरों की हैं
जो किसी अज्ञात सागर से उठीं
और मेरी भाषा में अपना जल
और स्वाद और ताप
और हर बार कुछ सीपियां रखकर लौट गईं
अब इनमें मोती हैं या नहीं
न लहरें जानती थीं
और न ही मैं जानता हूं...
हट्ट रे हथौड़े
इसके आगे की दास्तान न जाने कितनी रूहानी मोड़ लेती है। चंवरधारिणी के प्रति अपने अनुराग की हद वे इन शब्दों से जताते हैं- हट्ट रे हथौड़े/छेनियों की तराश तो कतई नहीं यह!
विनय कुमार की इन कविताओं से गुजरते हैं, तो इतिहास आंखों के सामने से गुजरने लगता है, साथ ही यक्ष और यक्षिणी की रहस्यमयी दुनिया को जानने की जिज्ञासा भी उत्पन्न होती है। वे अपनी कविताओं के जरिए अलकापुरी और रामगिरी की सुध भी लेते हैं।
बता दें कि अलकापुरी को पौराणिक नगर माना जाता है, धन के देवता कुबेर की नगरी कहा गया है इसे। यक्षों का स्वामी भी कुबेर को ही माना गया है। महाकवि कालिदास के मेघदूत में अलकापुरी का जिक्र आता है, साथ ही रामगिरि का भी, जिसे यक्ष के निर्वासन काल का स्थान बताया गया है।
यक्षिणी की एक मूरत के बहाने कहां से कहां से गुजरता है एक कवि, वह खुद भी नहीं जानता।राजकमल प्रकाशन से आई इस किताब से एक और कविता ...
लिखते-लिखते एक दिन अचानक खयाल आता है
कि गठन जिसकी ऐसी ग्रीवा ऐसी सुडौल
कैसे बोलती होगी वह
कैसी होगी उसकी आवाज
सुरीली तो अवश्य
पर पता नहीं
वीणा कि रबाब
सारंगी कि सितार
कि मन के मृदंग की गहरी धमक
कि सृष्टि की नाभि से उठती हुई
तबले के दाएं की पुकार
कि वक्ष की आंधियों से आह्लादित
बाएं का बम-बम
कैसी होगी उसकी आवाज
सोचता हूं दो कविताओं के बीच
और एक दिन चेतना की गोधूलि से पुकारता हूं
उत्तर स्वप्न में मिलता है
मदिर आवेग से उच्छल एक मीठी आवाज
जैसे रबाब की सांसों में तबले की धडक़नें
उलझ सी गई हों!
मैं तुम्हें सोचते हुए सोता तो नहीं
न तुम्हारी छवि के स्वप्न ही आते हैं
मगर कैसे जादुई दिन हैं ये
कि सुदूर अतीत के आदि सागर में
एक छोटी-सी लहर उठती है
और मेरी नींद के द्वार पर
चांद की प्याली में
धूप-सी गर्म चाय रखकर चली जाती है!
Published on:
25 Jul 2019 06:48 pm
बड़ी खबरें
View Allजयपुर
राजस्थान न्यूज़
ट्रेंडिंग
