केरल उच्च न्यायालय के 1991 के निर्णय के बाद मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का लेकर यह विवाद उस समय राष्ट्रीय मुद्दा बन गया जब 2006 में एक गैर-लाभकारी संगठन इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन (आईवाईएलए) ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर दी। इस याचिका में आईवाईएलए ने सबरीमाला मंदिर में सभी महिलाओं और लड़कियों के प्रवेश की मांग की थी। साथ ही इस बात की ओर भी ध्यान दिलाया था कि मंदिर परिसर में मासिक धर्म की आयु की महिलाओं को प्रवेश की अनुमति नहीं दी जाती है। यह संविधान प्रदत्त समानता के अधिकारों का उल्लंघन है।
2017 में सुप्रीम कोर्ट ने केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश से संबंधित मामले को तूल पकड़ता देख इसे पांच न्यायाधीशों की एक संविधान पीठ के हवाले कर दिया था। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली इस पीठ का कहना है कि संविधान पीठ परीक्षण करेगी कि महिलाओं के प्रवेश पर यह प्रतिबंध, कहीं संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के तहत समानता) और अनुच्छेद 15 (धर्म, जाति आदि के आधार पर भेदभाव पर प्रतिबंध) के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन तो नहीं है?
महिलाओं के प्रवेश पर रोक के पक्षधरों का कहना है कि सबरीमाला में भगवान अयप्पा की एक नास्तिक ब्रह्मचारी के रूप में पूजा की जाती है और यह दैवीय सिद्धांत की दृष्टि से एक तांत्रिक क्रिया है न कि वैदिक। तांत्रिक व्यवस्था में यह मंदिर एक प्रार्थना कक्ष नहीं है बल्कि एक ऊर्जा केंद्र है, जहां देवता ईश्वर नहीं, बल्कि एक विशेष आध्यात्मिक ऊर्जा का स्रोत होते हैं। प्रत्येक मंदिर की अपनी विशिष्टता है और यही विशिष्टता उस मंदिर की आत्मा भी है। इस दृष्टि से सबरीमाला की इस विशिष्टता को बनाए रखना होगा। ऐसा नहीं है कि इस मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर रोक है। प्रतिबंध केवल उन्हीं महिलाओं के प्रवेश पर है जिनकी आयु 10 से 50 वर्ष के बीच है।
प्रतिबंध के विरोधियों का कहना है कि शुद्धता और अप्रचलित धारणा के आधार पर सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध को तर्कहीन है। यह संविधान में प्रदत्त समानता के प्रावधानों के विरुद्ध है। यह प्रतिबंध लैंगिक समानता बहाल करने की दिशा में प्रतिगामी कदम हैं। साथ ही यह एक पितृसत्तात्मक समाज और महिलाओं के प्रति पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण का प्रतीक है। प्रवेश निषेध अनुच्छेद 14 (समानता), अनुच्छेद 15 (लिंग आधारित भेदभाव की मनाही) और अनुच्छेद 17 (छुआछूत की मनाही) का उल्लंघन है। यह संविधान के अनुच्छेद 25 द्वारा प्रदत धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का भी उल्लंघन है। जैविक विशेषताओं के आधार पर यह प्रवेश निषेध महिलाओं के लिए अनादरसूचक है, जबकि अनुच्छेद 51ए (ई) में महिलाओं को गरिमामय जीवन सुनिश्चित करने पर जोर देता है।
धार्मिक आजादी के अधिकार को लेकर महिलाओं से भेदभाव तथा मौलिक अधिकारों के हनन से संबंधित कई महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर सर्वोच्च न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की संविधान-पीठ विचार की है। इस पर सुनवाई पहले ही पूरी हो चुकी है। आज इस मुद्दे पर फैसला आना है।
1. क्या शारीरिक बदलाव के चलते महिलाओं के प्रवेश पर रोक लगाने की प्रथा भेदभाव तो नहीं है? 2. क्या 10 से 50 वर्ष की महिलाओं को बाहर रखना अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक रीति रिवाज का अभिन्न हिस्सा माना जा सकता है?