
नागौर।
नागौर जिला मुख्यालय से करब 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बरणगांव के रहने वाले हनुमान बेनीवाल आज राजस्थान में दोनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियों कांग्रेस व भाजपा के लिए चिंता का विषय बन चुके हैं। क्या कारण हैं कि खींवसर से निर्दलीय विधायक हनुमान बेनीवाल न केवल नागौर, बल्कि पूरे प्रदेश में ऐसे नेता बन चुके हैं, जिन्हें युवा अपना आदर्श मानते हैं और उनके लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। बेनीवाल के एक इशारे में हजारों लोगों की भीड़ जुटती है। वर्ष 2003 में पहली बार ओमप्रकाश चौटाला की पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल से नागौर के मूण्डवा विधानसभा से चुनाव लड़कर दूसरे स्थान पर रहने वाले बेनीवाल वर्ष 2008 में भाजपा से तथा वर्ष 2013 में निर्दलीय चुनाव लड़कर विधानसभा में पहुंच चुके हैं।
वर्ष 2008 में भाजपा के टिकट से खींवसर से विधायक बनने के बाद वसुंधरा राजे की खिलाफत करने पर पार्टी से निष्कासित होने के बाद विधायक बेनीवाल ने ज्यों-ज्यों भाजपा और कांग्रेस का विरोध किया, त्यों-त्यों उन्हें लोग पसंद करने लगे। खासकर युवाओं में बेनीवाल ज्यादा लोकप्रिय हुए। किसान व युवा की बात करने वाले बेनीवाल हर उस कार्यक्रम, आंदोलन एवं सम्मेलनों में शामिल हुए, जो सरकार के खिलाफ थे या किसानों एवं युवाओं से जुड़े हुए थे, फिर चाहे वे किसी भी जाति या वर्ग से सम्बन्धित क्यों न हो। जानिए, हनुमान बेनीवाल का इतिहास 1996 में राजस्थान के छोटे से गांव देव डूंगरी से सूचना का अधिकार आंदोलन शुरू हुआ। 2002 में प्रदेश के मुख्यमंत्री बने अशोक गहलोत ने इस कानून को प्रदेश में लागू कर दिया।
अशोक गहलोत एक साल बाद होने वाले चुनाव में अपने इस कदम को पूरी तरह भुनाना चाहते थे। 2003 के विधानसभा चुनाव से पहले पूरे प्रदेश की दीवारें एक नारे से पुत गईं, 'कांग्रेस सरकार ने क्या दिया? सूचना का अधिकार दिया।Ó नागौर की दीवारों पर मोटे काले अक्षरों और हरी हाईलाइटिंग में लिखी एक इबारत सत्ताधारी पार्टी के नारे को चुनौती दे रही थी। यह इबारत थी, 'चश्मे का निशान होगा, अगला मुख्यमंत्री किसान होगा।' चश्मा यानी ओम प्रकाश चौटाला की पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल का चुनाव चिन्ह। चौटाला के पिता चौधरी देवीलाल का राजस्थान से पुराना नाता रहा है।
1989 के लोकसभा चुनाव में वो राजस्थान की सीकर सीट से चुनाव जीते थे। देवीलाल जाटों के नेता थे और उनकी नजर राजस्थान की जाट पट्टी पर थी, लेकिन वो अपने इस एजेंडे पर आगे नहीं बढ़ पाए थे। उनके बेटे ओम प्रकाश चौटाला ने पिता के एजेंडे पर आगे बढऩा शुरू किया। उन्होंने 2003 के चुनाव में 50 जाट बाहुल्य सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे, इनमें से चार उम्मीदवार विधानसभा पहुंचने में कामयाब भी रहे थे।
हनुमान बेनीवाल को बीजेपी का टिकट नहीं मिला था, लिहाजा उन्होंने लोकदल का दामन थाम लिया और अपने पिता की परम्परागत मूंडवा सीट पर मैदान में उतर गए। इस चुनाव में मूंडवा में मुकाबला बहुत दिलचस्प था, बीजेपी ने इस सीट से ऊषा पूनिया को मैदान में उतारा था। ऊषा पूनिया पूर्व विधायक गौरी पूनिया की बहू थीं। कांग्रेस की टिकट पर लड़ रहे थे हबीबुर्रहमान। वही हबीबुर्रहमान जिन्होंने 1990 और 93 के चुनाव में हनुमान के पिता रामदेव बेनीवाल को चित्त किया था।
इस त्रिकोणीय संघर्ष में ऊषा पूनिया को मिले 39,027 वोट, हनुमान बेनीवाल को मिले 35,724 वोट और हबीबुर्रहमान को मिले 32,479 वोट। इस तरह हनुमान बेनीवाल यह मुकाबला 3,303 वोट से हार गए। किसानों का नेता नागौर सीट की पहचान राजस्थान के बड़े जाट राजनीतिक घराने 'मिर्धाÓ की वजह से रही है। 1971 से 1998 तक लगातार यह सीट मिर्धा परिवार के किसी ना किसी सदस्य के पास रही। नागौर विधानसभा सीट का हिसाब-किताब भी कुछ इसी तरह का रहा। 1957 में नाथूराम मिर्धा यहां से विधानसभा पहुंचे, 1962 में रामनिवास मिर्धा, इसके बाद ये दोनों नेता केंद्र की राजनीति में सक्रिय हो गए।
नागौर विधानसभा अगर 1980 और 1991 को छोड़ दें तो यह सीट लगातार कांग्रेस के कब्जे में रही और कांग्रेस का टिकट उसे मिलता था जिसे मिर्धा देना चाहते थे। रामनिवास मिर्धा के बेटे हरेन्द्र मिर्धा 1993 और 1998 में नागौर सीट से विधायक रहे थे, वो 2003 में बीजेपी के गजेंद्र सिंह खींवसर के हाथों चुनाव हार गए। हरेंद्र मिर्धा के चुनाव हारने की वजह से उनके परिवार के सियासी रसूक पर काफी बट्टा लगा। इसने नागौर में नए जाट चेहरे को उभरने के लिए खाली जगह दी।
हनुमान बेनीवाल इस खाली जगह को भरने में तेजी से उभर रहे थे। इस बीच जिले की डीडवाना तहसील में हुए जीवणराम गोदारा हत्याकांड ने उन्हें जाटों के नेता के रूप में उभरने का मौका दे दिया। जीवन राम गोदारा को न्याय दिलाने के नाम पर पूरे आस-पास के जिलों के जाट डीडवाना पहुंचने लगे। जीवन राम गोदारा उस समय की मूंडवा विधायक ऊषा के पति विजय पूनिया के करीब माना जाता था। ऊषा उस समय वसुंधरा राजे सरकार में मंत्री थीं, इस वजह से विजय पूनिया गोदारा की मौत के बाद खड़े हुए प्रदर्शन से दूर रहे। इसके उलट हनुमान बेनीवाल पूरे समय इस आंदोलन में सक्रिय रहे। इसने उन्हें जाट युवाओं के बीच काफी लोकप्रियता दी, वो तेजी से युवा जाट नेता के तौर पर उभरने लगे। खींवसर का बेताज बादशाह 2008 के परिसीमन के बाद मूंडवा सीट खत्म कर दी गई और खींवसर नाम से नई सीट अस्तित्व में आई। हनुमान बेनीवाल को 2008 के विधानसभा चुनाव में खींवसर से बीजेपी की टिकट मिल गई।
कांग्रेस ने उनके सामने डॉ. सहदेव चौधरी को टिकट दी थी, बीएसपी की टिकट से लड़ रहे दुर्गसिंह चौहान ने मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया था। इस मुकाबले में सफलता बेनीवाल की झोली में गिरी। इस चुनाव में हनुमान के खाते में गए 58,602 वोट, उनके निकटतम प्रतिद्वंदी रहे दुर्ग सिंह, जिन्हें 34,292 वोट हासिल हुए. कांग्रेस के सहदेव चौधरी महज 17,124 वोट ही हासिल कर पाए। माने लंबे संघर्ष के बाद आखिरकार बेनीवाल विधायक बन गए थे। अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ाने की ओर बढ़ चुके थे।
विधायक बनने के बाद बेनीवाल ने पार्टी की मुख्यिा वसुंधरा राजे को भ्रष्टाचार की देवी कहकर विरोध करना शुरू कर दिया, जिस पर उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया। हालांकि प्रदेश में सरकार कांग्रेस की थी और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत थे, इसके बावजूद विधायक बेनीवाल ने अपने विधानसभा क्षेत्र में खूब विकास कार्य करवाए। किसानों से जुड़े हर मुद्दे पर वो सरकार के सामने खड़े हो गए, जिससे उनकी लोकप्रियता बढ़ती गई। वर्ष 2013 के चुनाव में हनुमान बेनीवाल ने एक बार फिर निर्दलीय के रूप में खींवसर से ताल ठोकी।
भाजपा ने भागीरथ मेहरिया व कांग्रेस ने मूण्डवा के प्रधान रह चुके राजेन्द्र फिड़ौदा को मैदान में उतारा। बसपा से एक बार फिर दुर्गसिंह चौहान मैदान में उतरे, लेकिन जीत फिर हनुमान बेनीवाल की हुई और जीत का अंतर भी 23020 हजार से अधिक वोटों का रहा। यहां बसपा के दुर्गसिंह दूसरे स्थान पर रहे, जबकि भाजपा के भागीरथ तीसरे व कांग्रेस के राजेन्द्र चौथे स्थान पर रहे।
रामदेव की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाया साल 1994, रामदेव बेनीवाल के लगातार दो चुनाव हारने के एक साल बाद एक नौजवान जयपुर के महाराजा कॉलेज के बाहर अपने कुछ साथियों के साथ खड़ा था। उसके साथी हर आते-जाते छात्र को एक पर्चा थमा रहे थे. इस पर्चे पर लिखा था, हनुमान बेनीवाल फॉर प्रेसीडेंट। हनुमान बेनीवाल 1994 में महाराजा कॉलेज से पहली मर्तबा अध्यक्ष बने। यह सियासत में उनका पहला कदम था।
1995 में वो दूसरी दफा महाराजा कॉलेज के अध्यक्ष बने। 1996 में लॉ कॉलेज के अध्यक्ष चुने गए। बतौर छात्रनेता वो तेजी से उभर रहे थे। आने वाले दो साल उनकी जिंदगी को पूरी तरह बदल देने वाले थे, लेकिन उससे पहले 1996 का एक किस्सा। रात को दो बजे खोलने पड़े जेल के ताले ये 1996 का साल था, सुबह के तकरीबन साढ़े चार का वक़्त था।
जयपुर के सिन्धी कैंप बस स्टैंड पर खड़े कुछ छात्र चाय पीते-पीते अखबार बांच रहे थे. अखबार के उपरी किनारे पर दर्ज तारीख बताती थी कि यह 9 अगस्त का दिन था। पहले पन्ने पर खबर लिखी हुई थी, 'राजस्थान विश्वविद्यालय में बवाल, छात्रसंघ अध्यक्ष सहित एक दर्जन छात्रनेता गिरफ्तार.Ó ये छात्र इस खबर की एक-एक लाइन पढ़ रहे थे और ठहाके लगाकर हंस रहे थे. इन लोगों ने अखबार को तह करके अपने साथ रख लिया और यूनिवर्सिटी की तरफ बढ़ गए। राजस्थान यूनिवर्सिटी में प्रदेश के हर कोने से छात्र पढऩे आते हैं. जाति के अलावा यहां जिलावार गोलबंदिया भी बनी होती हैं।
1996 का छात्रसंघ चुनाव नागौर ग्रुप के पक्ष में रहा था. नागौर के नावां से आने वाले महेंद्र चौधरी राजस्थान यूनिवर्सिटी के अध्यक्ष बने थे और बरणगांव के रहने वाले हनुमान बेनीवाल लॉ कॉलेज के अध्यक्ष चुने गए थे। जुलाई के अंत में ये लोग छात्रसंघ का चुनाव जीते थे और अगस्त के पहले सप्ताह से विधानसभा का मानसून सत्र शुरू हो गया. विपक्ष के कई छात्र संगठनों ने अपनी मांगों को लेकर यूनिवर्सिटी बंद करने का आह्वान कर दिया।
राजस्थान यूनिवर्सिटी उस दौर में बंद और हड़तालों के लिए ही जानी जाती थी. ये दोनों नेता इस प्रचार के दम पर चुनाव जीतकर आए थे कि वो बंद और हड़तालों के चलते यूनिवर्सिटी के आम छात्रों की पढ़ाई डिस्टर्ब नहीं होने देंगे. इसलिए ये दोनों नेता यूनिवर्सिटी बंद के खिलाफ थे। सुबह सवा नौ बजे दोनों पक्ष यूनिवर्सिटी गेट पर आमने-सामने हो गए. दोनों तरफ से तनाव बढ़ता जा रहा था।
पुलिस ने छात्रों की भीड़ को हटाने के लिए लाठीचार्ज कर दिया। बदले में गुस्साए छात्रों ने पुलिस पर पत्थर बरसाने चालू कर दिए. करीब तीन घंटे चली इस लाठी-पत्थर की जंग में दोनों तरफ के कई लोग घायल हुए। प्रदर्शन पर लगाम लगाने के लिए पुलिस ने एक दर्जन से ज्यादा छात्रों को गिरफ्तार कर लिया. इसमें महेंद्र चौधरी और हनुमान बेनीवाल भी शामिल थे।
गिरफ्तार किए गए छात्रों को पहले बजाज नगर थाने लेकर जाया गया और वहां से इन्हें केन्द्रीय कारागार भेज दिया गया. कहते हैं कि उस समय इन छात्रनेताओं का ऐसा रौला था कि जेल की बैरक से निकल-निकलकर कई कैदी इन्हें देखने के लिए बाहर आ गए। देर रात प्रशासन को सूचना मिली कि अपने छात्रसंघ अध्यक्ष और लॉ कॉलेज अध्यक्ष की गिरफ्तारी के खिलाफ प्रदर्शन के लिए यूनिवर्सिटी के तमाम छात्र लामबंद हो रहे हैं। स्थिति किसी भी क्षण नियंत्रण से बाहर हो सकती थी. प्रशासन जानता था कि एक बार अगर छात्र सड़कों पर आ गए तो उन्हें नियंत्रित करना मुश्किल हो जाएगा।
भैरो सिंह शेखावत उस समय राजस्थान के मुख्यमंत्री थे, विधानसभा सत्र के दौरान वो राजधानी में छात्रों का कोई आंदोलन नहीं चाहते थे. स्थिति पर काबू पाने का एक ही जरिया था. गिरफ्तार किए गए छात्रनेताओं को तुरंत रिहा किया जाए. लेकिन इसमें भी एक दिक्कत थी. जेल के कायदे के हिसाब से सूरज डूबने के बाद जेल के दरवाजे नहीं खोले जा सकते थे. स्थिति की गंभीरता को समझते हुए इस नियम को ताक पर रख दिया गया और रात दो बजे के करीब गिरफ्तार किए गए। सभी छात्रनेता छोड़ दिए गए।
जब तक ये लोग जेल से छूटकर आए शहर के अखबार छप चुके थे. सिन्धी कैंप पर चाय पीते-पीते ये लोग अपनी ही गिरफ्तारी की खबर पढ़ रहे थे। जेसी बॉस हॉस्टल कांड 5 सितंबर 1997, 28 साल की एक युवती जयपुर के गोपालपुरा बस स्टैंड पर खड़ी अपने एक दोस्त का इंतजार कर रही थीं। दोपहर के करीब ढाई बज रहे थे. कुछ ही मिनट में उनका दोस्त विजय दहिया अपनी मोटर बाइक पर उन्हें लेने पहुंच गया। वो उसके साथ बैठकर राजस्थान यूनिवर्सिटी के जेसी बॉस हॉस्टल पहुंचीं।
शाम साढ़े चार बजे वो पैदल हॉस्टल से बाहर निकलीं. उन्होंने बाहर आकर अपना पर्स टटोला तो पाया कि उसमें एक भी पाई नहीं बची है। करीब एक किलोमीटर चलने के बाद उन्होंने ऑटो लेने की बजाए पैदल ही पुलिस स्टेशन की तरफ बढऩा शुरू किया. वहां दर्ज करवाई गई शिकायत के मुताबिक जेसी बॉस हॉस्टल के एक कमरे में ओम बेनीवाल नाम के एक छात्र के राजस्थान पुलिस में चुने जाने की खुशी में पार्टी चल रही थी।
लड़के शराब पी रहे थे और वीसीआर पर ब्लू फिल्म देख रहे थे. इन लोगों ने उसे कमरे में बंद कर दिया और विजय दहिया के साथ मिलकर नशे में धुत 9 छात्रों ने उसके साथ दुष्कर्म किया। जयपुर में हुए इस बलात्कार के बाद जनता का गुस्सा फूट गया था। एक महीने पहले ही शिवानी जडेजा नाम की एक स्कूल छात्रा पर तेज़ाब फेंका जा चुका था. जुलाई के महीने में स्कूल में पढऩे वाली शालिनी तंवर को अगवा करके रेप करने की खबर शहर के अखबार में छाई रहीं।
दो महीने में महिलाओं पर हमले की तीसरी घटना के बाद शहर का धैर्य जवाब दे गया था. इस मामले से जुड़े आरोपी राजनीतिक घराने से आते थे. यहां तक कि एक पुलिस अधिकारी भी पीडि़ता के यौन शोषण का आरोपी था. ऐसे में पुलिस किसी भी आरोपी को हाथ लगाने से बच रही थी. इससे जनता का गुस्सा बढ़ता जा रहा था। 8 सितंबर के रोज 100 के करीब छात्र जयपुर के महाराजा कॉलेज के सामने पीडि़ता के पक्ष में धरना दे रहे थे. इन प्रदर्शनकारियों ने रास्ते पर जीप खड़ी करके रास्ता जाम कर रखा था. लड़के बैनर लेकर खड़े थे. पुलिस की तरफ से रास्ता खुलवाने के लिए लाठीचार्ज शुरू हुआ. आक्रोशित छात्रों ने जवाब में पुलिस पर पथराव शुरू कर दिया।
बैनर के डंडे निकालकर कई छात्र पुलिस वालों से भिड़ गए। मौके पर मौजूद पुलिस इंस्पेक्टर लक्ष्मीनारायण भिंडा ने लालकोठी थाने में कुछ छात्र नेताओं के खिलाफ राजकार्य में बाधा पहुंचाने का मामला दर्ज करवाया. एफआईआर में दर्ज नाम थे, राज कुमार शर्मा, विजय देहडू और हनुमान बेनीवाल। उस समय तक राजस्थान विश्वविद्यालय के चुनाव नहीं हुए थे। जेसी बॉस हॉस्टल काण्ड के विरोध में किए गए प्रदर्शन के चलते हनुमान बेनीवाल छात्रों के बीच और ज्यादा लोकप्रिय हो गए। 1997 में हुए छात्रसंघ के चुनाव में वो दोनों बड़े छात्र संगठनों एनएसयूआई और एबीवीपी का दामन थामने की बजाए निर्दलीय लड़े और बड़े आराम से चुनाव जीत गए।
5 प्रतिशत का आंदोलन राजस्थान यूनिवर्सिटी में देश की दूसरी यूनिवर्सिटी की तरह ही 12वीं क्लास में मिले प्रतिशत के आधार पर एडमिशन होता है. गांव में पढने वाले छात्रों के पास शहरों की तरह बेहतर संसाधन नहीं होते. ऐसे में गांव के स्कूल से पढ़कर आने वाले छात्र मैरिट में मात खा जाते थे. हनुमान बेनीवाल यूनिवर्सिटी चुनाव के दौरान गांव से आने वाले छात्रों के लिए दाखिले के वक़्त 5 फीसदी अतरिक्त अंक की मांग कर रहे थे, चुनाव जीतने के बाद उन्होंने इस मुद्दे पर आंदोलन छेड़ दिया। राजस्थान विश्वविद्यालय के छात्र और प्रशासन एक बार फिर से आमने-सामने थे।
यूनिवर्सिटी छात्रों और पुलिस के बीच जंग का मैदान बनी हुई थी. छात्रों का यह मुद्दा विधानसभा में बहस की वजह बन गया. उस समय राजस्थान में भैरो सिंह शेखावत के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार थी. सत्ता पक्ष के 58 विधायकों ने सदन में हनुमान बेनीवाल की गिरफ्तारी की मांग की. नतीजतन उन्हें राजस्थान यूनिवर्सिटी में धरना देते हुए गिरफ्तार कर लिया गया. वो कुल 8 दिन जेल में रहे और बाहर छात्र सरकार के खिलाफ मोर्चा बांधकर बैठे हुए थे. आखिरकार उनकी मांग मान ली गई. 5 फीसदी बोनस अंक मिलने की वजह से अगले सत्र में गांव से आने वाले 8000 छात्रों का एडमिशन संभव हो पाया।
बेरंग टिकट हनुमान बेनीवाल के पिता रामदेव बेनीवाल 1990 और 1993 का विधानसभा चुनाव हार चुके थे। राजस्थान में वो जिस जनता दल का झंडा ढो रहे थे वो 1991 में चंद्रशेखर की सरकार गिरने के बाद कई टुकड़ों में टूट चुकी थी. इस कठिन समय में उनका साथ दिया भैरो सिंह शेखावत ने. वही भैरो सिंह शेखावत जिनके खिलाफ हनुमान बेनीवाल जयपुर में छात्र आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे. रामदेव बेनीवाल और शेखावत का परिचय जनता पार्टी के समय से था. शेखावत के कहने पर रामदेव बीजेपी में आ गए. 1998 का विधानसभा चुनाव उनकी सियासत की अग्नि परीक्षा की तरह था।
इस चुनाव में हार का मतलब था उनकी सियासी पारी का अंत. रामदेव इस सीट से बीजेपी के प्रत्याशी के तौर पर नामांकन भर चुके थे. 8 दिसंबर 1998 के रोज सूबे में चुनाव होने थे. चुनाव के लिए जनसंपर्क अभियान जोर-शोर से जारी था. 12 नवंबर को अचानक खबर आई कि दिल का दौरा पडऩे की वजह से रामदेव बेनीवाल का इंतकाल हो गया है. यह परिवार और पार्टी दोनों के लिए अप्रत्याशित था। पार्टी के आला लीडर बेनीवाल के घर मातमपुर्सी के लिए पहुंचे।
वहां तय हुआ कि रामदेव बेनीवाल की सियासी विरासत को हनुमान आगे लेकर जाएंगे. जरूरी क्रिया-कर्म से फुर्सत पाकर हनुमान अपने नामांकन के लिए निर्वाचन अधिकारी के पास पहुंचे. वहां जाकर उन्हें पता लगा कि उम्मीदवार के देहांत होने की स्थिति में हर राजनीतिक दल को सात दिन के भीतर-भीतर चुनाव आयोग को सूचना यह भेजनी होती है कि अब उसका नया उम्मीदवार कौन होगा।
भारतीय जनता पार्टी की तरफ से यह सूचना भेजने में देर हो गई थी. ऐसे में उनका नामांकन नहीं हो सकता. पिता की मौत के बाद उनकी सियासी विरासत का छिनना उनके लिए दूसरा बड़ा धक्का था. यह कठिनाई और संघर्ष के दौर की शुरुआत थी, जिसे एक दशक लंबा चलना था। बदरंग होली हनुमान बेनीवाल मूलत: नागौर के बरणगांव के रहने वाले हैं. 1959 से इस गांव में सरपंचई उनके परिवार के पास रही है।
बरणगांव में एक परंपरा है कि धुलंडी के दिन गांव के सभी लोग ठाकुर जी के मंदिर पर इकठ्ठा होते हैं. अगर गांव में किसी का झगड़ा चल रहा है तो उसे इसी दिन जाजम पर बैठकर सुलझा लिया जाता है. 10 मार्च 2001 के रोज लोग इसी रवायत के चलते ठाकुर जी मंदिर पर इकठ्ठा हुए थे। गांव को सांसद कोटे से एक सामुदायिक भवन मिला हुआ था. सामुदायिक भवन बनवाने के लिए जमीन की दरकार थी. गांव में जमीन खाली नहीं होने की वजह से ठाकुर जी के मंदिर में खाली पड़ी जमीन पर निर्माण कार्य करवाने की बात तय हुई।
सामुदायिक भवन के लिए चिंहित जमीन जल्द ही विवाद का कारण बन गई. गांव के ही परमाराम का कहना था कि प्रस्तावित सामुदायिक भवन का एक हिस्सा उनकी जमीन पर खड़ा होना था. सामुदायिक भवन के लिए जमीन देने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। इस विवाद को सुलझाने के लिए परमाराम को भी इस सभा में बुलाया गया. बात सुलझने की बजाए उलझती चली गई. बातचीत की जगह हाथापाई ने ली. इसी गहमागहमी में बंदूक निकल गई।
हाथापाई के दौरान जमीन पर गिरे परमाराम के कंधे पर पॉइंट ब्लेंक रेंज से गोली मार दी गई. उन्होंने मौका-ए-वारदात पर ही दम तोड़ दिया। इस मामले में लिखी गई एफआईआर में गांव के सरपंच प्रहलाद बेनीवाल, उनके भाई हनुमान और नारायण बेनीवाल का नाम शामिल था. प्रहलाद को उसी दिन गांव से गिरफ्तार कर लिया गया. हनुमान बेनीवाल घटना के तीसरे दिन पुलिस की गिरफ्त में थे। इस मामले में वो 88 दिन लगातार जेल में रहे। पहले पिता की मौत, फिर नामांकन रद्द होना और उसके बाद यह कत्ल केस. बेनीवाल परिवार के लगभग सभी मर्द इस केस में जेल के भीतर थे।
परेशानी की ऐसी श्रृंखला जो खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी. इस कत्ल केस के फंद में फंसा परिवार किसी तरह बाहर निकलता उससे पहले एक और ट्रेजडी हो गई. हनुमान के बड़े भाई प्रहलाद ने दिल के दौरे की वजह से जेल में ही दम तोड़ दिया. इस घटना ने परिवार को पूरी तरह से तोड़ दिया। सीआरपीसी की 169 नंबर की धारा कहती है कि अगर मामले की तफ्तीश कर रहे पुलिस अधिकारी को यह लगता है कि गिरफ्तार किए गए शख्स के ऊपर कोई मामला नहीं बनता है तो वो उसे छोड़ सकता है. इसी सीआरपीसी की धारा 167 कहती है कि केस दर्ज किए जाने के 90 दिन के भीतर-भीतर कोर्ट में चार्जशीट फ़ाइल कर दी जानी चाहिए. चार्जशीट फ़ाइल करने के दो दिन पहले हनुमान बेनीवाल को सीआरपीसी की धारा 169 के आधार पर रिहा कर दिया गया. हनुमान बेनीवाल का दावा था कि वो घटना के समय मौके पर मौजूद नहीं थे और पुलिस ने अपनी तफ्तीश में इस दावे को दुरुस्त पाया।
Published on:
29 Oct 2018 05:58 pm
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