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सत्ता के खेल में खिलाड़ी नहीं, रेफरी है मीडिया

सरोकार: पत्रकारिता की असली कसौटी निष्पक्षता और विश्वसनीयता ही है दरअसल संकट अपनी-अपनी जिम्मेदारी-जवाबदेही से विमुख हो जाने का है, राजनीति आत्मकेंद्रित हो गई है तो खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दिशाहीन

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Sep 18, 2023
सत्ता के खेल में खिलाड़ी नहीं, रेफरी है मीडिया

राज कुमार सिंह
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
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मुख्य विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ द्वारा दूरदर्शन समेत नौ टीवी न्यूज चैनलों के 14 एंकरों के कार्यक्रमों के बहिष्कार का फैसला राजनीति और मीडिया से जुड़े कई सवाल खड़े करता है, जिनसे प्रभावित हुए बिना लोकतंत्र भी नहीं रह सकता। ‘इंडिया’ की नजर में इन एंकरों की निष्पक्षता और एजेंडा संदेहास्पद हैं। राजनीति हो या मीडिया, बिना विश्वसनीयता दोनों ही बेमानी हैं। प्रशंसा और अनुकूल बातें अच्छी लगना मानवीय कमजोरी है। इसलिए जब भी कोई मनमाफिक बात नहीं करता, अखरने लगता है। जब अखरना, खटकने में बदल जाता है, तब मनमुटाव की स्थिति बनती है। उस स्थिति में जिसके जो वश में होता है, वह करने में संकोच नहीं करता। इसी के चलते अतीत में भी राजनीति और मीडिया के रिश्ते प्रभावित होते रहे हैं।

केंद्र हो या राज्य, सरकार ही नहीं, सत्तारूढ़ दल भी मीडिया को अपने हिसाब से हांकना चाहता है। कोई सेंसरशिप लगाता है, तो कोई ‘हल्ला बोल’ करता है, कोई विज्ञापन बंद कर देता है और कोई एफआइआर आदि से दबाना चाहता है। अगर मीडिया समूह मनमाफिक चले तो विज्ञापनों की खैरात से ले कर बहुत कुछ न्योछावर कर दिया जाता है। और याद रखिए, यह किसी राजनीतिक दल विशेष का नहीं, सत्ता का ही चरित्र है। क्या ‘इंडिया’ में ऐसे दल-नेता नहीं हैं, जो आलोचना पर मीडिया की बांह मरोडऩे में देर नहीं लगाते?

मीडिया के लिए सबसे चुनौतीपूर्ण दौर आपातकाल का रहा। तब मीडिया पर सरकार का अंकुश इस हद तक था कि जी-हुजूर न बनने वाले समाचार पत्र ब्लैक बॉर्डर छाप कर तथा अपना संपादकीय कॉलम खाली छोड़ कर विरोध जताते थे। मीडिया समूहों और पत्रकारों को किस-किस तरह की प्रताडऩा से नहीं गुजरना पड़ा था! तब देश में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नहीं था, जो अब स्वयं को ही सर्वशक्तिमान मीडिया समझने लगा है द्ग भले ही अतीत और वर्तमान के घटनाक्रम की बाबत उसके नामचीन एंकरों की जानकारियां अधूरी, गलत या फिर पूर्वाग्रही ही क्यों न हों।

जब आपातकाल का काला दौर समाप्त हुआ और आम चुनाव के बाद केंद्र में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार के रूप में जनता पार्टी सत्तारूढ़ हुई, तो उसके सूचना एवं प्रसारण मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने एक कार्यक्रम में मीडिया पर तंज कसा था द्ग ‘आपसे झुकने को कहा गया था, आप तो रेंगने लगे!’ उससे पहले और उसके बाद भी, मीडिया पर अंकुश की कोशिशें कम नहीं हुईं, पर राजनीति और मीडिया, दोनों के लिए आपातकाल सबक हो सकता था। पर यहां तो हर कोई सबक सिखाने की ताक में रहता है, सीखता कौन है? राजनीति और मीडिया, दोनों इस सच से मुंह चुरा रहे हैं कि तमाम बाजारवाद के बावजूद इन दोनों की भूमिका देश और समाज के लिए ही है। वही भूमिका इन दोनों की प्रासंगिकता की अनिवार्य शर्त भी है। क्या दोनों अपनी भूमिकाओं में इस कसौटी पर खरा उतर पा रहे हैं?

भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। लोकतंत्र की परिभाषा ही है द्ग जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा शासन। क्या आजादी के अमृतकाल में हमारी राजनीति लोकतंत्र की इस परिभाषा को प्रतिबिंबित करती है? सही-गलत के बीच रैफरी के रूप में मीडिया की भूमिका तो और भी महत्त्वपूर्ण है, पर बात इतने सारे टीवी न्यूज चैनलों के नामचीन एंकरों के कार्यक्रमों के बहिष्कार तक पहुंच जाने से साफ है कि कई रैफरी निष्पक्ष रहने के बजाय सत्ता के खेल में खिलाड़ी बनने को लालायित हैं। शायद उन्हें भ्रम है कि वे ही राजनीति और देश का एजेंडा तय करते हैं। कम शिक्षा और संसाधनों के बावजूद आम भारतीय नासमझ नहीं है। बोलचाल की भाषा में कहें तो ‘ये पब्लिक है, सब जानती है।’ कंट्रोल रूम से नियंत्रित और स्क्रीन पर पढ़ कर अपना ज्ञान बघारने वाले एंकर किस तरह डिबेट को अपनी या चैनल की मनमाफिक दिशा में मोड़ देते हैं या अपने एजेंडे से अलग राय रखने वाले पैनलिस्ट की बात बीच में ही काट देते हैं या कई बार तो उनका माइक ही बंद कर देते हैं, यह सब छिपाते हुए भी बहुत कुछ दिख जाता है।

समझ से परे है कि 90 प्रतिशत डिबेट ज्वलंत या जनता से जुड़े मुद्दों के बजाय राजनीति प्रेरित टॉपिक पर क्यों होती हैं? टीवी चैनलों पर डिबेट को मुर्गे और सांड लड़ाने जैसे कटाक्ष से अरसे से नवाजा जा रहा है, यहां तक कि गैर-राजनीतिक लोगों द्वारा भी। फिर भी खेल बदस्तूर जारी है, तो यह स्थिति आनी ही थी, जो ऐसे मीडिया की साख पर ही सवालिया निशान लगा दे। ऐसी टीवी डिबेट की गिरती दर्शक संख्या और कुछ यू-ट्यूबरों की बढ़ती दर्शक संख्या बहुत कुछ कहती है, पर संकट यह है कि वे भी निष्पक्षता की कसौटी से परे अक्सर इस या उस राजनीतिक धारा का प्रवक्ता बनने से परहेज नहीं कर पाते।

अगर मीडिया के एक वर्ग ने मर्यादा लांघ कर साख गंवाई है तो मुख्य विपक्षी गठबंधन ने भी ऐसा अतिवादी कदम उठा कर राजनीति की लक्ष्मण रेखा लांघी है। असहमति लोकतंत्र का महत्त्वपूर्ण अंग है। यह बात राजनीति और मीडिया, दोनों को ही समझनी होगी। अगर समस्या इन एंकरों के आचरण से है, तो पहले इनके चैनल-मालिकों से लिखित आपत्ति दर्ज कराना बेहतर होता। बिना प्रबंधन की सहमति के लगातार संवेदनशील राजनीतिक मुद्दों पर डिबेट, वह भी इस तरह कि पक्षपात का आरोप लग सकता हो, संभव नहीं लगती।

दरअसल संकट अपनी-अपनी जिम्मेदारी-जवाबदेही से विमुख हो जाने का है। राजनीति आत्मकेंद्रित हो गई है तो खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दिशाहीन। पत्रकारिता की असली कसौटी निष्पक्षता और विश्वसनीयता ही है। ‘सत्ताश्रयी’ के ठप्पे के साथ प्रेस लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होने का दम नहीं भर सकता। विपक्ष को भी समझना होगा कि किसी एजेंडे के तहत पूछे जाने वाले असहज सवालों का भी तार्किक जवाब ही कारगर रणनीति है। आरोपों और अनर्गल प्रचार का जोरदार जवाब देना होता है, उनसे मुंह नहीं चुराया जाता। इसी प्रक्रिया में गलत-सही का फैसला होता है और एजेंडा बेनकाब भी। याद रखना चाहिए कि लोकतंत्र में जनता ही जनार्दन है, अंतिम निर्णय उसी का होता है — भले ही उसे आने में समय लग जाए।

Published on:
18 Sept 2023 10:36 pm
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