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तीन तलाक: एक कुप्रथा का अंत

भारत में महिलाओं के अधिकारों व गरिमा का हनन करने वाली इस कुप्रथा का बने रहना शर्मनाक- शाह
‘वोट बैंक की राजनीति के दबाव में कांग्रेस ने अदालत के आदेश के विपरीत फैसला लिया’
‘तीन तलाक कानून के पास होने के बाद पीएम मोदी का नाम इतिहास में सामजिक सुधारकों की श्रेणी में शुमार होगा’

नई दिल्लीAug 03, 2019 / 05:58 pm

Giriraj Sharma

Triple talaq

तीन तलाक: एक कुप्रथा का अंत

अमित शाह

भारत के संसदीय इतिहास में 30 जुलाई, 2019 की तारीख एक अहम पड़ाव के रूप में दर्ज हुई है. उच्च सदन में ऐतिहासिक तीन तलाक बिल को पारित ( triple talaq ) होने के बाद मुस्लिम महिलाओं के न्याय और सम्मान की दिशा में एक ऐसी सफलता हासिल हुई है, जिसकी प्रतीक्षा दशकों से थी। विपक्ष के तमाम गतिरोधों के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ( Prime Minister Narendra Modi ) के नेतृत्व में भाजपा सरकार ने इसे पूरा करने का बीड़ा उठाया था और किया। कांग्रेस सहित विपक्षी दलों के अवरोधों के बावजूद मोदी सरकार ने इस दिशा में अपने प्रयास जारी रखे और अंततः अब हमें कामयाबी मिली है। राष्ट्रपति की मंजूरी मिलते के बाद यह क़ानून प्रभाव में आ गया है और अब यह तीन तलाक जैसी कुप्रथा का दंश झेल रही महिलाओं को संरक्षण प्रदान करेगा।

राज्यसभा में तीन तलाक पर हुई चर्चा तथा इसके पारित होने की प्रक्रिया को अगर बारीकी से देखें तो अनेक बिंदु उभर कर आते हैं। पहली बात तो यह है कि महिलाओं के सम्मान, स्वाभिमान और गरिमायुक्त जीवन के प्रति मोदी सरकार की प्रतिबद्धता और निरंतर प्रयासों की जीत के रूप में इसे देखा जाना चाहिए। साथ ही यह विषय विपक्ष के दोहरे मानदंडों को उजागर करने वाला भी रहा है। तीन तलाक पर हुई चर्चा ने उन दलों के वास्तविक चरित्र को भी उजागर किया है, जिनके लिए महिलाओं के आत्मसम्मान से ज्यादा महत्वपूर्ण वोटबैंक का तुष्टिकरण है।

तीन तलाक के विषय पर एक तथ्य यह भी उभर कर सामने आया है कि विपक्षी दलों को एकजुट करने की कांग्रेस की क्षमता भी क्षीण हुई है। चूँकि जब जन सरोकार से जुड़े विषयों पर कोई सरकार मजबूती से कदम उठाती है तो एक बड़े वर्ग द्वारा स्वागत और समर्थन स्वाभाविक होता है। तीन तलाक कानून जनसरोकार तथा समाजिक सुधार से जुड़ा विषय था इसलिए कई गैर राजग दलों ने भी इस बिल के पारित होने में परोक्ष या अपरोक्ष रूप से सहयोग दिया, जिसका हम स्वागत करते हैं। हम विभिन्न दलों से अनुरोध करते हैं कि उन्हें राजनीति से ऊपर उठकर कानूनी रूप से सुधारवादी कार्यों में सहयोग करना चाहिए।

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इस मुद्दे पर कांग्रेस के दृष्टिकोण को इतिहास के आईने से समझने की जरुरत है। आज से तीन दशक पूर्व एकबार यह अवसर आया था जब शाहबानो मामले में 400 से अधिक सांसदों वाली कांग्रेस पार्टी मुस्लिम महिलाओं को इस दंश से मुक्त करा सकती थी। 1985 में उच्चतम न्यायालय ने तीन तलाक से पीड़ित शाह बानो के पक्ष में फैसला देते हुए उसे 500 रुपये प्रति माह के रख-रखाव के खर्चे का प्रावधान रखते हुए कहा था कि उनका फैसला शरियत कानून के अनुसार है। परन्तु मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, मौलबियों और वोट बैंक की राजनीति के दबाव में प्रधानमंत्री राजीव गांधी ( Rajiv Gandhi ) ने फैसला अदालत के आदेश के विपरीत लिया। उस समय के कांग्रेस के मंत्री आरिफ मोहम्मद खान जो कि कोर्ट के आदेश को तर्कसंगत मानते थे, ने विरोध में इस्तीफा तक दे दिया।

राजीव गांधी के उस फैसले का विरोध करते हुए सर्वोच्च न्यायलय के पूर्व न्यायाधीश वी.आर कृष्णा अय्यर ने पत्र लिखा और राजीव सरकार के फैसले को कुरान के खिलाफ बताया। किन्तु, वर्षों तक यह मुद्दा ठंडे बस्ते में रहा, परन्तु मोदी सरकार आने के बाद इस विषय को दुबारा जब लाया गया, तब भी कांग्रेस के रूख में कोई बदलाव नहीं नजर आया. आज के तीस साल पहले कांग्रेस का जो रूख था वही वोट बैंक की राजनीति का रुख इस बार भी सदन की चर्चा और वोटिंग में देखने को मिला है. कांग्रेस की यह विडंबनात्मक और असंतोषपूर्ण स्थिति उसकी तुष्टिकरण की राजनीतिक का चरित्र ही दिखाती है।

इस बिल ने तथाकथित उदारवादियों की भी पोल खोल दी है। महिला अधिकारों के लिए आये दिन तख्तियां लहराने वाले कथित उदारवादी खेमे के लोग मुस्लिम महिलाओं की दुर्दशा से मुक्ति के इस कदम पर मौन साध कर बैठ गये अथवा इसका विरोध किया। यह साबित हो गया है कि उनकी उदारवादिता मानवीय मूल्यों पर नही बल्कि राजनीतिक स्वार्थ से प्रेरित है।

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गौरतलब है कि तीन तलाक के अदालत द्वारा बैन करने के बाद इस पर कानून लाने पर प्रश्न उठाने वाले भूल जाते हैं कि जनवरी 2017 में कोर्ट द्वारा बैन लगाने के बावजूद अभी तक लगभग ढाई सौ से अधिक मामले आधिकारिक तौर पर सामने आए है। इसका साफ मतलब है कि बिना सख्त कानून लाये इस कुरीति से मुस्लिम बहनों के हितों की रक्षा नही हो सकती है।

हमें समझना होगा कि तीन तलाक को लेकर जिन महिलाओं ने सुप्रीम कोर्ट में एक लम्बी लड़ाई लड़ी, वे किसी राजनीतिक दल से प्रेरित महिलाएं नहीं थीं, बल्कि एकदम सामान्य महिलाएं थीं। इस कुप्रथा से त्रस्त उन महिलाओं ने इसके खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत दिखाई और कोर्ट में उन्हें जीत भी हासिल हुई। हमारी सरकार उन महिलाओं के संघर्ष में हमेशा इनके साथ रही और अब तीन तलाक पर क़ानून लाकर इस लड़ाई को इसके सही अंजाम तक पहुंचाने का भी काम किया है।

वास्तव में विधायिका और राजनीतिक दलों का यह दायित्व ही होता है कि वे जनसामान्य की उठती हुई आवाज को उचित स्वरूप देकर सही दिशा में आगे बढ़ाएं। संसद का भी यह काम होता है कि वर्तमान समय और आवश्यकताओं के अनुरूप नीतियों व नियमों का निर्माण करे। इस मामले में हमारी पार्टी और सरकार के साथ संसद ने भी अपने दायित्व का सम्यक निर्वहन किया है।
तीन तलाक आज के समय में ईरान, ईराक, सीरिया और पकिस्तान जैसे 19 देशो में यदि अमान्य है, तो इसका यही कारण है कि हम वर्तमान समाज की आवश्यकताओं के बीच रूढ़ियों व दकियानूसी परम्पराओं को लेकर नहीं चल सकते। ऐसे में, भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश में महिलाओं के अधिकारों व गरिमा का हनन करने वाली इस कुप्रथा का बने रहना शर्मनाक था।

इस संबंध में विपक्षी दलों का यह तर्क निराधार है कि इसे सिर्फ मुस्लिम समाज के लिए क्यों किया जा रहा! मैं कहना चाहूँगा कि भले ही आज हम मुस्लिम समाज के बीच व्याप्त इस कुरीति के खिलाफ मजबूत कानून बनाने के लिए खड़े हुए हों, लेकिन इससे पूर्व अन्य धर्मों में भी आवश्यक सुधारों को किया गया है। चाहें बाल विवाह का अधिनियम हो, हिन्दू विवाह अधिनियम हो, दहेज़ प्रथा के विरुद्ध क़ानून हो, ईसाई अधिनियम हो, इस तरह के कानूनी परिवर्तन व सुधार सब धर्मों में किए जाते रहे हैं। यह अलग बात है कि सुविधा की बहस और तुष्टिकरण की राजनीति करने वालों को यह दिखाई नहीं देता अथवा वे देखकर भी अनदेखा करना चाहते हैं।

triple talaq
IMAGE CREDIT: triple talaq

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तीन तलाक पर क़ानून में दंडात्मक प्रावधान को लेकर सरकार पर सवाल उठाना भी ठीक नहीं है। चूंकि यह पहली बार नहीं हुआ है कि किसी सिविल मामले में कानून बना कर उसमे दंड का प्रावधान किया गया हो। उदहारण के तौर पर दहेज़ लेने पर कम से कम पांच वर्ष और मांग करने पर कम से कम छः महीने का कारावास, शादीशुदा रहते हुए दोबारा विवाह करने पर सात वर्ष की सजा और बाल विवाह पर दो वर्ष की सजा जैसे अनेको सिविल मामलों में दंड का प्रावधान है।

गौरतलब है कि यह सभी कानून हिन्दू समाज के लिए कांग्रेस सरकारों के कार्यकाल में बने। स्पष्ट है कि तीन तलाक क़ानून में सजा का प्रावधान होना कोई नयी बात नहीं है। महिलाओं के अधिकारों व जीवन जीने की गरिमा का हनन करने वाले व्यक्ति के लिए दंड का भय होना ही चाहिए। किन्तु इस मामले में कांग्रेस का जो रुख है, वह उसका दोहरा मापदंड और तुष्टिकरण की राजनीति नहीं तो और क्या है?

तीन तलाक को लेकर हुआ यह परिवर्तन हो या पूर्व में कई अन्य मामलों न्यायालय के निर्णय से हुआ परिवर्तन हो, इस तरह के सब परिवर्तनों को हमें समझना, स्वीकारना और संभालना होगा। इस संदर्भ में हमारी संसद एक बेहतर उदाहरण है। ये कहें तो गलत नहीं होगा कि हमारी सामूहिक सोच व चिंतन का नाम ही संसद है, जहां एक ही मुद्दे पर विविध विचारों से गुजरते हुए एक आम सहमति बनाने का प्रयास किया जाता है। तमाम गतिरोध पूर्ण और सदन कार्य में बाधा डालने के बावजूद मोदी सरकार इसमें कामयाब हुई है।

बहरहाल, मोदी सरकार इसके लिए बधाई की पात्र है कि उसने तीन तलाक के विषय पर न केवल ऐसा मजबूत क़ानून लाने का साहसिक फैसला लिया बल्कि तमाम विरोधों के बावजूद दृढ़ता से इसपर बढ़ती रही और अब इसे संसद के दोनों सदनों से मंजूरी दिलवाने में भी कामयाब रही है। तीन तलाक कानून के पारित होने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी का नाम इतिहास में निश्चित रूप से राजा राम मोहन राय और ईश्वरचंद्र विद्यासागर सरीखे सामजिक सुधारकों की श्रेणी में रखा जाएगा।

यह क़ानून मुस्लिम महिलाओं के हितों व अधिकारों की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम सिद्ध होगा। अब उनके लिए एक नए युग का आरम्भ होगा और तुष्टिकरण और वोट बैंक की राजनीति के अंत की शुरुआत होगी।

(लेखक भारत सरकार में गृह मंत्री हैं )

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